"नक्षत्र": अवतरणों में अंतर

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=== 28वें नक्षत्र का नाम ===
28वें नक्षत्र का नाम [[अभिजित]] (Abhijit)([[Alpha Lyrae|α]], [[Epsilon Lyrae|ε]] and ζ [[Lyra (constellation)|Lyrae]] - [[Vega]] - उत्तराषाढ़ा और श्रवण मध्ये)
अभिजित्
 
पुराणों व ज्योतिष शास्त्र में अभिजित् नक्षत्र के देवता के रूप में ब्रह्मा का नाम आता है तथा अभिजित् नक्षत्र के मन्त्र के रूप में ब्रह्म जज्ञानं इत्यादि मन्त्र का उल्लेख आया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.५.६ में भी अभिजित् नक्षत्र द्वारा ब्रह्मलोक की अभिजय करने का कथन है। ब्रह्मलोक की जय किस प्रकार की जा सकती है, इसकी व्याख्या पुराणों में शिव द्वारा अभिजित् काल में त्रिपुर दाह के माध्यम से की गई है। त्रिपुर के तीन पुरों की रचना मय दानव द्वारा की गई है और अयस्मय, रजतमय और सुवर्णमय पुरों में तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली आदि असुरों के रहने का वर्णन आता है। तारक को समझने के संदर्भ में रामोत्तरतापिन्युपनिषद २ में वर्णन आता है कि ओंकार के अ, उ, म, अर्धमात्रा, बिन्दु व नाद ही तारक ब्रह्म हैं, यह मृत्यु से, ब्रह्महत्या से, संसार से पार तारते हैं। विद्युन्माली असुर के संदर्भ में बृहदारण्यक उपनिषद २.१.४ तथा २.५.८ में विभिन्न ब्रह्मों का वर्णन किया गया है जिसमें कहा गया है कि जब विद्युत की स्थिति ऐसी हो जाए कि वह सब भूतों में मधु उत्पन्न करने लगे तो विद्युत में स्थित तेजोमय अमृतमय पुरुष भी ब्रह्म हो जाता है। इसी प्रकार पृथिवी, आपः, अग्नि, वायु, आदित्य, दिशाएं, चन्द्रमा, स्तनयित्नु, आकाश, धर्म, सत्या आदि में स्थित पुरुष भी ब्रह्म हो सकते हैं। यह दधीचि द्वारा अश्विनौ को प्रदत्त मधु विद्या है। यदि ब्रह्मलोक प्राप्ति की कामना हो तो पृथिवी, अग्नि, आपः आदि में स्थित पुरुषों को दधीचि ऋषि द्वारा वर्णित मधु विद्या के द्वारा ब्रह्म का रूप देना होगा( तुलनीय : पुराणों में अभिजित् नक्षत्र के लिए मधु आदि दान का उल्लेख)।
 
ब्राह्मण ग्रन्थों में पृथिवी, अग्नि, दिशाओं, वायु आदि पर अभिजय प्राप्त करने के वर्णन आते हैं जिन्हें उपरोक्त मधु विद्या के संदर्भ में समझना होगा। पुराणों में सार्वत्रिक रूप से अभिजित् काल में त्रिपुर के तीन पुरों के एक होने का उल्लेख आता है। शिव द्वारा सर्व ओंकारमय रथ द्वारा त्रिपुर की अभिजय से पूर्व त्रिपुर के तीन पुरों में असुरों का निवास था। शिव द्वारा जीतने के पश्चात् यह देवों का निवास स्थान हो गया है। अथर्ववेद १०.२.३१ में वर्णन आता है कि देवों का पुर अष्टचक्रों व नौ द्वारों वाली अयोध्या है, वही ब्रह्मा की अपराजिता पुरी है। अतः यह कहा जा सकता है कि अभिजित् होने के पश्चात् त्रिपुर का रूपान्तरण अयोध्या में हो जाता है।
 
ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यु लोकों की अभिजय के उल्लेख आते हैं। इस संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.६ का कथन है कि सम्यक् अभिजय तभी प्राप्त हो सकती है जब पहले पृथिवीलोक में स्थित गार्हपत्य अग्नि की प्रतिष्ठा की जाए, उसके पश्चात् अन्तरिक्ष में स्थित अन्वाहार्यपचन अग्नि की और उसके पश्चात् द्युलोक में स्थित आहवनीय अग्नि की। यदि इसके विपरीत क्रम से प्रतिष्ठा की गई तो अभिजय नहीं हो सकेगा। गार्हपत्य अग्नि पर अभिजय से अन्नाद्य/मधु पर अभिजय प्राप्त होती है(शतपथ ब्राह्मण ४.६.४.२)। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.३.३ से संकेत मिलता है कि असुरों के शिल्पी मय द्वारा निर्मित पुरों की अभिजय का एक विकल्प देवशिल्पी विश्वकर्मा होना है। शतपथ ब्राह्मण ३.७.१.१४ में यज्ञ में यूप के अग्रिम, मध्यम व अपर भागों द्वारा तीन लोकों के अभिजय की कल्पना की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण २.१७ में तीन लोकों की अभिजय के लिए अग्नि, उषा और अश्विनौ देवताओं की प्रतिस्पर्द्धा का वर्णन किया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.४.३ व ३.१२.५.६ में पशुबन्ध व अग्निष्टोम द्वारा पृथिवीलोक, उक्थ्य द्वारा अन्तरिक्ष व अतिरात्र द्वारा स्वर्गलोक की अभिजितियों का उल्लेख है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.९.१ व ३.११.१०.१ में नचिकेता अग्नि चयन कर्म द्वारा तीन लोकों की अभिजिति का वर्णन है।
 
पुराणों में अभिजित् काल में वामन के जन्म के उल्लेख के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.५.४ का कथन है कि विष्णु होकर इन लोकों पर अभिजय की जाती है। इसके सायण भाष्य में कहा गया है कि कर्मकाण्ड में विष्णु के क्रमण की पुनरावृत्ति रथ के द्वारा की जाती है। यह अन्वेषणीय है कि शिव द्वारा त्रिपुर का और विष्णु के रथ द्वारा त्रिलोकी की अभिजय में क्या अन्तर है? तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.४.८ में विष्णु क्रम के स्थान पर वाजी के क्रमों का उल्लेख है।
 
अभिजित् के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ अन्य रोचक उल्लेख आते हैं। शतपथ ब्राह्मण १२.२.३.१२, १३.२.४.१ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.३.८ के अनुसार मनुष्य लोक की अभिजय ग्राम्य पशुओं द्वारा होती है जबकि देवलोक की जय आरण्यक पशुओं द्वारा। अरण्य में(तप करने पर?) क्षुधा, पिपासा आदि ही राक्षस हैं। अरण्य पर विजय पाने के लिए स्वयं को यज्ञ की वेदी, बर्हि, इध्म बनाना पडताहै। हो सकता है कि रामायण में अरण्यकाण्ड की रचना के पीछे यह एक कारण हो और वास्तविक अयोध्या की प्राप्ति इसके पश्चात् ही होती हो।
 
ब्राह्मण ग्रन्थों में दिशाओं की अभिजय के सार्वत्रिक उल्लेख आते हैं। तैत्तिरीय संहिता १.७.५.४ तथा ५.२.१.१ के अनुसार विष्णु क्रम के प्रसंग में पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक की अभिजय क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप् तथा जगती छन्दों द्वारा होती है जबकि दिशाओं की अनुष्टुप् छन्द द्वारा। तैत्तिरीय संहिता ५.४.९.४ के अनुसार रथ वज्र है और दिशाओं की अभिजय रथ द्वारा ही की जाती है। जैमिनीय ब्राह्मण २.३१६ के अनुसार पुरुष में ९ प्राण और दसवीं नाभि १० दिशाओं के प्रतीक हैं अर्थात् दिशाओं पर अभिजय से ९ प्राणों पर अभिजय होती है। ९ प्राणों को त्रिवृत् ब्रह्म कहा गया है। पुराणों में मध्याह्न में अभिजित् काल में सूर्य द्वारा अपने रथ से अश्वों को अलग कर देने और विश्राम करने के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण ४.१८ तथा ४.१९ में देवों द्वारा अभिजित् व विश्वजित् स्तोमों द्वारा सूर्य के दृढीकरण का वर्णन उपयोगी हो सकता है।
 
ब्राह्मण ग्रन्थों में अक अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेख अभिजित् और विश्वजित् में अन्तर के सम्बन्ध में आता है। काठक संहिता ३९.५ के अनुसार जय का क्रम यह है : स्वः जित्, पृतनाजित्, भूरिजित्, अभिजित्, विश्वजित्, सर्वजित्, सत्राजित् और धनजित्। जैमिनीय ब्राह्मण २.८ के अनुसार मनुष्य लोक अभिजित् है जबकि देवलोक विश्वजित्। जैमिनीय ब्राह्मण २.४३० के अनुसार अभिजित् द्वारा अग्नि में स्थान/वास प्राप्त होता है जबकि विश्वजित् द्वारा इन्द्र में। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.३.३ के अनुसार इन्द्र द्वारा वृत्र के वध आदि से मनुष्य लोक आदि की जय तो हो जाती है, लेकिन देवलोक अनभिजित् ही रहता है। देवलोक की जय इन्द्र द्वारा विश्वकर्मा बनने पर होती है। शतपथ ब्राह्मण १२.१.४.२ में गवामयन यज्ञ के विभिन्न अङ्गों में से दक्षिणबाहु को अभिजित् और उत्तरबाहु को विश्वजित् कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण १२.२.३.२ में अभिप्लव, पृष्ठ्य, अभिजित् आदि यज्ञों का क्रम भी द्रष्टव्य है। शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.१५ में दक्षिण व उत्तर कर्णों को अभिजित् व विश्वजित् कहा गया है।
 
पुराणों में आनकदुन्दुभि-पुत्र अभिजित् के संदर्भ में अथर्ववेद ६.१२६.३ में उल्लेख आता है कि जब अभिजिति प्राप्त हो तो केतु के रूप में दुन्दुभि बजे। अथर्ववेद १२.३.१५ में वनस्पति/दुन्दुभि के वादन द्वारा सर्व लोकों के अभिजय की कामना की गई है। यह दुन्दुभि नाद का प्रतीक हो सकती है। वसुदेव-पुत्र कृष्ण के अभिजित् नक्षत्र में जन्म के संदर्भ में हमें चन्द्रमा और अभिजित् के सम्बन्धों पर विचार करना होगा। जैमिनीय ब्राह्मण २.९८ में सूर्य व चन्द्रमा द्वारा क्रमशः दिन और रात्री की अभिजय का वर्णन आता है। अह सुवर्ण है, रात्रि रजत है। जैमिनीय ब्राह्मण १.११ के अनुसार अग्निहोत्र से उन सब लोकों की अभिजय होती है जो आदित्य से परे हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१.४ के अनुसार दारुमय/काष्ठमय पात्रों द्वारा देवलोक पर अभिजय होती है जबकि मृन्मय पात्रों द्वारा मनुष्यलोक की(कृष्ण का जन्म कंस के कारागार में होता है। कंस यज्ञ में पान पात्र को कहते हैं जैसे सुराकंस)। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.३.७ में सोम ग्रह से देवलोक और सुराग्रह से मनुष्य लोक की अभिजय करने का उल्लेख है। यजमान सोम का रूप है, अन्य सुरा का। सोम पुरुष है जबकि सुरा स्त्री। सोम ग्रह पूर्व में है, सुरा ग्रह पश्चिम में। तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.४ आदि में अभिजित् को ग्रावा(सोम अभिषवण का पत्थर) से युक्त कहा गया है।
आचार्य शशांक शेखर शुल्ब
 
== राशि ==