"वुडरो विल्सन": अवतरणों में अंतर

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== राजनीतिक जीवन ==
विल्सन को १९१० में [[न्यू जर्सी]] राज्य का [[गवर्नर]] चुना गया। १९१२ में विल्सन को [[अमेरिका के राष्ट्रपति|अमेरिका का २८ वाँ राष्ट्रपति]]<ref>[http://www.whitehouse.gov/about/presidents/woodrowwilson अमेरिका के २८वें राष्ट्रपति : व्हाइट हाउस का आधिकारिक जालघर]</ref> चुना गया। वे ८ वर्षों तक अमेरिका के राष्ट्रपति के पद रहने के बाद सेवानिवृत्त हो गये। १९१९ में विल्सन को [[शांति का नोबेल पुरस्कार]] प्राप्त हुआ। १९२४ में मस्तिष्क आघात (cerebral haemorrhage) से उनका निधन हो गया।<ref>[http://www.nobelprize.org/nobel_prizes/peace/laureates/1919/wilson-bio.html वुडरो विल्सन की जीवनी]</ref>
 
वुडरो विल्सन ने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन वह संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति बनेगा। बहुत कम ऐसे लोग हैं जो इस पद पर राजनीतिक अपरिपक्वतापूर्ण व्यक्तित्व से पहुंचे होंगे। लेकिन राष्ट्रपति बनने के पश्चात् किसी ने इतनी दृढ़ता, सूझबूझ, राष्ट्र-निर्माण की दक्षता एवं कर्त्तव्य-परायणता से कार्य नहीं किया होगा, जितना शान्ति के मसीहा विल्सन ने। एक भविष्यदृष्टता और आदर्शवादी होते हुए भी वह लिंकन के बाद सबसे अच्छा अधिक यथार्थवादी और निपुण राजनीतिक नेता था। परन्तु 1913 में कोई भी यह नहीं जानता था कि विल्सन महान् व्यक्ति बनेगा। कोई नहीं जानता था कि विल्सन द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रथम महान् विश्व युद्ध में भाग न लेने के सभी प्रयत्नों के बावजूद भी उस राष्ट्र को युद्ध में निर्णायक भाग लेना होगा। कोइ नही जानता था कि वह अटलाण्टिक के उस पार जाकर विश्व को स्थायी शान्ति देने का प्रयास करेगा और उसके प्रयत्न कुछ यूरोपलय राजनीतिज्ञों की स्वार्थपरायणता और घरेलू तुच्छ विरोधों की वेदी पर नष्ट होंगे। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने ही आदर्शों एवं योजनाओं को अपने ही लोगों द्वारा निर्दयतापूर्वक निरस्त एवं पराजित होते हुए नहीं देखा होगा।
 
विल्सनव राजनीति शास्त्र का प्राध्यापक था। अतएव वह चिंतक था। उसने अमेरिकी प्रशासन पर विशद् ग्रन्थ लिखे थे। उसका विचार था कि कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका में शक्ति के बंटवारे से शासन में सामंजस्य नहीं हो पाया। अतएव उसकी इच्छा थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति को इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री की भांति शक्तिशाली होना चाहिये। जब वह राष्ट्रपति बना तो उसने निःसन्देह अपने विचारों को कार्यान्वित कर राष्ट्रपति की शासन का शक्तिशाली केन्द्र-बिन्दु बनाया। उसमें साहसिक निर्भीकता, निरुत्तर कर देने वाली निष्कपटता थी। उसका विश्वास था कि सात्विक कार्यों की सदैव विजय होगी और सत्य के प्रतिनिधियों को असत्य, अविवेक एवं आडम्बर से समझौता नहीं करना चाहिये। अपने शासनकाल के आरम्भिक वर्षों में ही उसने सम्पूर्ण जनता का ध्यान आकर्षित कर लिया। उसने सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन में समर्पण, त्याग एवं नैतिकता की भावना को प्रेरित किया। लेकिन स्वयं की सात्विकता एवं उद्देश्यों के प्रति उसमें इतना गर्व कर गया कि वह सोचने लगा कि जो उसका विरोध करते थे वे ईश्वर का विरोध कर रहे थे। उसमें लिंकन की विनम्रता का अभाव था। अपने चुनाव अभियान में उसने पूर्व के अनुदारवादी विचारों को त्यागकर प्रगतिवाद का नारा दिया था। राष्ट्रपति बनने के बाद उसने अपने व्यक्तित्व में समझौतावादी जीवन ग्रहण नहीं किया, हालांकि राष्ट्रपति पद के नामांकन के लिए उसने उस ब्रायन की भी बहुत प्रशंसा की थी जिसके सम्बन्ध मेंं उसकी धारणा यह थी कि ‘उसे कचरे में फैंक देना चाहिए।’ वस्तुतः उसके व्यकितत्व में अनेक गुणों का सम्मिश्रण था। वह खुशामद पसन्दगी की एवं विनम्र घूसखोरी की कला से परिचित था, लेकिन साथ ही वह गहरी नैतिकता, दया एवं संवेदनशील वृत्ति का भी था। वह अच्छे-बुरे की पहचान रखता था। उसमें ‘पूर्व विमान’ (Old Testament), प्लेटो के ‘दार्शनिक राजा’ एवं मैकियावली के ‘राजकुमार’ के तत्त्वों का समावेश था। लिंकन की भांति वह समय के साथ अपने उत्तरदायित्व के योग्य सिद्ध हुआ।
 
विल्सन शान्ति के राजनय में विश्वास करता था, मतलेदों को वार्ता के राजनय द्वारा सुलझाने का पक्षधर था। वह आदर्शवादी था। जब दूसरी बार वह राष्ट्रपति चुना गया तब उसे इस बात की गम्भीर चिन्ता थी कि विश्व की तनावपूर्ण सि्िति को देखते हुए अमेरिका को तटस्थता के पायदान पर नहीं रखा जा सकता था। विल्सन शान्ति का समर्थक था। वह अच्छी तरह जानता था कि विश्व युद्ध में अमेरिकी प्रदेश से अमरीकियों की विचारधारा, दर्शन एवं साहित्य पर युद्धप्रियता का भारी प्रभाव पड़ेगा। विल्सन ने अमेरिकी प्रस्तावों को शान्ति के लिए प्रस्तुत किया जिन्हें यूरोपीय शक्तियों ने अस्वीकार कर लिया। अमेरिका ने तटस्थता की घोषणा की। 4 सितम्बर, 1914 को कांग्रेस के नाम अपने राजनयिक सन्देंश में विल्सन ने कहा कि-”यह स्थिति हमारे द्वारा निर्मित नहीं है लेकिनद यह हमारे सामने है। यह हमें प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है मानो हम उन परिस्थितियों के भागीदार हैं जिन्होंने इसे जन्म दिया है। हम इसका भुगतान करेंगे यद्यपि हमने जानबूझकर इसे जन्म नहीं दिया है।“ अमेरिका महायुद्ध से अछूता नहीं रह सकता था फिर भी 1914 में कोई अमेरिकी नहीं जनता था कि उन्हें युद्ध में संलग्न होना पड़ेगा। जब जर्मनी की यू-बोटों (U-Boats)ने अनियन्त्रित युद्ध शुरु कर दिया तो जर्मनी के विरुद्ध अन्तिम शक्तिशाली तटस्थ देश अमेरिका भी युद्ध में प्रविष्ट हो गया। विल्सन ने 2 अप्रेल, 1917 को कांग्रेस को अपना प्रसिद्ध सन्देश भेजा, जिसमें उसने अपने देश को सलाह दी कि यह युद्ध में प्रवेश करे और विश्व को लोकतन्त्रीय शक्तियों की रक्षा करे। उक्त सन्देश में उसने कहा, ”जिन सिद्धान्तों को हम हृदय से चाहते हैं, उनकी रक्षार्थ हम अवश्य लड़ेगे। हम लोकतन्त्र की रक्षा करेंगे। हम उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करेंगे जो किसी न्यायपूर्ण सत्ता का आदर करते हैं और इस प्रकार अनुशासन में रहकर अपने शासन में कुछ अधिकार चाहते हैं। हम सभी छोटे देशों और राष्ट्रों के अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की आवश्यक रक्षा करेंगे। हम अवश्य चाहेंगे कि सारे संसार में स्वतन्त्र लोगों को न्यायपूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त रहे जिससे सभी देशों में शान्ति और सुरक्षा बनी रहे और इस प्रकार सारा विश्व स्वतन्त्र रहे। आज अमेरिका के सौभाग्य से वह दिन आ गया है जबकि हमारे नागरिक अपना रक्त और अपनी शक्ति उन सिद्धान्तों की रक्षार्थ व्यय करेंगे जिनके आधार पर अमेरिका का जन्म हुआ था, जिनके आधार पर अमेरिका को सुख और समृद्धि प्राप्त हुई थी तथा वह अमूल्य शान्ति प्राप्त हुई जिसे वह अत्यन्त महत्व की दृष्टि से देखता आया है।“
 
शान्तिप्रिय विल्सन विवश था। अमेरिका के भविष्य के लिए यह अत्यन्त महत्व की बात थी कि उसे ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में मिला था जिसने इस युद्ध के आधार को ‘मोक्ष और सुधार की संज्ञा’ में परिणत कर दिया। 17 जनवरी, 1917 के भाषण का एक अंश उसकी सम्पूर्ण मानवता के प्रति संवेदनशील विचारों को अभिव्यक्त करता है-”बिना किसी पक्ष की विजय के शान्ति, प्रत्येक जाति के लिए आत्म-निर्णय का सिद्धान्त, सामूहिक, स्वतन्त्रता, अस्त्र-शस्त्रों का परिसीमन, उलझाने वाली सन्धियों का उन्मूलन तथा आक्रमण की रोक के लिए सामूहिक संरक्षण की व्यवस्था।“ 2 अप्रेल को विल्सन ने देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस के सामने उपस्थित होकर युद्ध की घोषणा करने की अनुमति मांगी। ”इस महान् शान्तिपूर्ण जनता को युद्ध की ओर-जो सबसे अधिक भयानक और विध्वंसक युद्ध है..ले जाना भयानवी बात है। सभ्यता स्वयं भी संकट के पलड़े में झूल रही है किन्तु न्याय शान्ति की अपेक्षा मूल्यवान है ओर हम ऐसी वस्तुओं के लिए लड़ेंगे जो हमें अत्यधिक प्रिय रही हैं। लोकतन्त्र के लिए, ऐसे लोगों के अधिकारों के लिए जो शासन का इसीलिए मान करते हैं कि अपनी सरकार में उनकी सुनवाई हो, छोटे राष्ट्रों के अधिकारों और स्वतन्त्रता के लिए लोगों को ऐसे संगठनों द्वारा विश्व के न्याय शासन के लिए जो सभी राष्ट्रों को शान्ति और सुरक्षा दिलाए और अन्त में सर्व विश्व को स्वतन्त्र बन सकें। ऐसे ही लोक कार्य को अपना जीवन और अपना सर्वस्व समर्पित कर सकते हैं। इस अभियान के साथ कि वह दिन आ गया है, जब अमेरिका का अपरा रक्त और शक्ति, अपने सिद्धान्तों के लिए जिन्होंने उसे जन्म और सुख-शान्ति दी है, जिसे उसने सुरक्षित रखा है, खर्च करनी चाहिए यानि ईश्वर की कृपा रही तो वह इसके अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकता।“
 
युद्ध के पश्चात्, चाहे विल्सन को पराजय का सामना करना पड़ा हो और चाहे नाममात्र के वास्तविकतावादियों ने उसकी कटु आलोचना की हो, उसका भाषण अमेरिकी इतिहास एवं राजनीति को मोड़ देने वाला था। उनके हृदय से निकलने वाले शब्द इतने मार्मिक थे कि सारा राष्ट्र उसकी आवाज पर तानाशाही पर प्रजातन्त्र की बर्बरता पर सभ्यता की विजय के लिए युद्ध में कूद पड़ा। समुद्र पार के देशों में वह न केवल एक अद्वितीय महापुरुष के रूप में प्रकट हुआ, न केवल एक शक्तिशाली राष्ट्र के नेता के रूप में पहचाना जाने लगा, जो विश्व में शान्तिप्रिय, सुखद व व्यवस्थित जीवन की रक्षा के लिए अवतरित हुआ हो।
 
नेविन्स एवं कौमेजर के शब्दों में-”शक्ति अधिकाधिक शक्ति, शक्ति बिना किसी रुकावट या सीमा के यह वचन राष्ट्राध्यक्ष विल्सन ने दिया था और राष्ट्र हठवादिता को थोपने में सफलता प्राप्त की। इस वचन की पूर्ति के लिए अविलम्ब कार्यरत हो गया। इसके पूर्व की किसी सरकार ने युद्ध में इससे अधिक बुद्धिमानी ओर कार्यक्षमता नहीं दिखलाई थी। इसके पूर्व अमेरिकावासियों ने भी ऐसी स्फूर्ति, साधन-सम्पन्नता और आविष्कार बुद्धि का प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं किया था।“ ‘बिना विजय की शांन्त’ युद्ध का नारा बन गया था।
 
युद्ध-विराम सन्धि के पश्चात् विल्सन जब अपने सचिव की सलाह न मानकर दिसम्बर, 1918 में पेरिस शान्ति सम्मेलन में पहुंचा तो उसका ‘शान्ति के मसीहा’ के रूप में स्वागत हुआ। यूरोप में उस समय यह भावना विद्यमान थी कि केवल विल्सन ही ऐसा व्यक्ति है जो विभिन्न राष्ट्रों के राग-द्वेष और उनकी ईर्ष्या-भावना से ऊपर उठा हुआ एवं मानवता का रक्षक है। अतः जब यह दार्शनिक राजा अपने सिद्धान्तों की पुस्तिका हाथ में लेकर सैनिक-शक्ति से लैस, सन्धि की शर्तें निर्धारित करने आया तो यूरोप की जनता ने उसके सम्मान में हृदय खोल दिया। सभी देशों में उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। जब वह पेरिस पहुंचा तो फ्रांसीसी उसे देखकर आनन्द-विभोर हो उठे। सड़कों पर अपार जन-समूह ने उसकी स्तुति की और अखबारों ने उसके गुणगान किए। वास्तव में सभी की आंखें उसकी ओर लगी थीं। विजयी न्याय की विजित दया की, और सामान्य जन-शक्ति की आशा करते थे।
 
विल्सन इस सम्मेलन में शान्ति का दीप बनकर आया था। वह नहीं चाहता था कि पेरिस सम्मेलन 1815 के वियना कांग्रेस जैसे निहित स्वार्थों का गढ़ बन जाये। परन्तु वह अन्दाज नहीं लगा पाया था कि विजेता राष्ट्रों में स्वार्थ की गन्ध रहती है और यदि वह अन्य तथ्यों को ध्यान में रखता तो वह उस जाल या धोखे से बच जाता जिसमें वह स्वयं अपने आदर्शवाद के कारण बुरी तरह उलझ गया। उसके पवित्र उद्देश्य विजेता राष्ट्रों की सत्ता-पिपासा के आगे भस्मसात हो गये। विल्सन ने अपने विचारों को प्रसिद्ध 14 सूत्रों (Fourteen Points) के रूप में प्रस्तुत किया जिनके आधार पर न्यायपूर्ण और उसके 14 सूत्रों में प्रथम सूत्र यही था कि-शान्ति के समझौते सार्वजनिक रूप से किये जायेंगें, कोई गुप्त समझौता नहीं होगा। इन सिद्धान्तों की मित्रराष्ट्रों के राजनीतिज्ञों ने भी सराहना की थी। उनके पास युद्धोत्तर समस्याओं का समाधान करने के लिए उपरोक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त और क्या था ? और पराजित राष्ट्रों ने भी इन सिद्धान्तों के प्रति अपनी सहमति प्रकट की परन्तु आदर्शों एवं सिद्धान्तों की अन्ततः शक्ति-पूजक राष्ट्रों के सामने कुछ न चल सकी। इस सम्मेलन में भी राष्ट्रवादी विचारों, व्यक्तिगत स्वार्थों का बोलबाला रहा, जिनका वियना कांग्रेस (1815) में प्राधान्य रहा था। फ्रांस का क्लेमेंसी और इंग्लैण्ड का लॉयड दोनों ने ही विल्सन पर अपनी हठवादिता को थोपने में सफलता प्राप्त की। आर0बी0 मोबात ने ‘यूरोपियन डिप्लोमेसी’ में लिखा है कि ”क्लेमेंसो प्रातःकाल यह वाक्य दुहराया करता था- मैं राष्ट्रसंघ (League of Nations) की स्थापना का समर्थन करूंगा।“ किन्तु इटली के ओरलैण्डो से जब एक बार पूछा गया कि राष्ट्रसंघ के बारे में आपका क्या मत है तो उत्तर दिया था कि ”हम निःसन्देह राष्ट्रसंघ की स्थापना का स्वागत करेंगे किन्तु फ्यूम (Fiums) का प्रश्न तय किया जाना चाहिये।“ विल्सन सम्पूर्ण सम्मेलन में अकेला पड़ गया था। वियना कांग्रेस के पश्चात् यूरोप में इस प्रकार इतने विशाल पैमाने पर विश्व स्तर का कोई सम्मेलन नहीं हुआ था।
 
प्रिन्सटन में राजनीति-दर्शन का यह भूतपूर्व प्रोफेसर एक प्रतिभाशाली वक्ता तथा आदर्शवादी विचारक था। वह कठोर विश्वासों का व्यक्ति था जिसमें राजनीतिक दूरदर्शिता तो उच्च कोटि की थी, लेकिन इतनी कूटनीतिक योग्यता नहीं थी कि वह अन्य प्रतिनिधियों को पराजित राष्ट्रों के साथ उदार व्यवहार के लिए तैयार कर सके। स्टेन्नार्ड बेकर के शब्दों में ”जिस किसी ने भी उसको (विल्सन को) काम करते देखा, उसकी कभी हिम्मत नहीं हुई कि वह विल्सन के समक्ष अथवा उसकी पीठ पीछे निन्दा करने का साहस करता।“ विल्सन का यह विश्वास था कि राष्ट्रसंघ की स्थापना से ही मानव जाति की रक्षा हो सकती है, अतः वह इसे सब शान्ति-सन्धियों का अनिवार्य अंग बनाना चाहता था। किन्तु वह मानसिक दृष्टि से लॉयड जॉर्ज तथा क्लेमेंसो के समान कुशाग्र नहीं था और अपने पूर्व-निर्धारित विचारों पर विशेष रूप से भरोसा रखता था, अतः वह कूटनीति के क्षेत्र में और राजनीतिक सौदेबाजी के नो-सिखिया के रूप में सिद्ध हुआ। उसके आदर्शवाद और राष्ट्रसंघ की स्थापना के अत्यधिक उत्साह का दूसरे देशों ने पूरा लाभ उठाया। अन्य देश राष्ट्रसंघ के निर्माण की बात मान लें, इसके लिए विल्सन सब कुछ त्यागने के लिए तैयार था, यहां तक कि राष्ट्रसंघ के लिए वह अपने 14 सूत्रों के अनेक सिद्धान्तों की अवहेलना करने के लिए भी तैयार हो गया। पाल बर्डसल (P . Birdsall) के कथनानुसार वह क्षतिपूर्ति की समस्या के अतिरिक्त अन्य सभी प्रश्नों पर ब्रिटेन, फ्रांस और जापान विल्सन से राष्ट्रसंघ के नाम पर प्रायः अपनी अधिकांश बातें मनवाने में सफल हुआ। चीनी जनता द्वारा बास हुआ शाण्टुङ्ग का प्रदेश विल्सन के आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के आधार पर चीन को मिलना चाहिये था, किन्तु विल्सन ने राष्ट्रसंघ की स्थापना के लिए अन्य महाशक्तियों का सहयोग प्राप्त करने की इच्छा से इसे जापान को देने का निर्णय किया। यह निर्णय स्वयंमेव विल्सन द्वारा अपने सिद्धान्तों पर कुठाराघात था। फिर भी, पेरिस-सम्मेलन में यदि पराजितों के साथ थोड़ी नरमी बरती गई तो वह विल्सन के कारण ही। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि यदि विल्सन सम्मेलन में न होता तो लॉयड जॉर्ज और क्लेमेंसो न जाने क्या से क्या कर देते। विल्सन ही उनकी असीम आकांक्षाओं पर अंकुश लगाता रहा। यदि विल्सन न होता तो फ्रांस जर्मनी का नामोनिशान मिटाकर ही दम लेता।
 
विल्सन के दो उद्देश्य थे। प्रथम न्यायपूर्ण समझौता जिसके अनुसार आत्म-निर्णय के सिद्धान्त पर राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण हो ताकि परस्पर शान्ति स्थापित हो सके। द्वितीय, राष्ट्रसंघ की स्थापना। पहले उद्देश्य में वह सफल नहीं हुआ क्योंकि जो शान्ति की गई वह थोपी हुई शान्ति थी न कि आत्म-निर्णय के आधार पर या समझौता-वार्ता की शान्ति। परन्तु उसे दूसरे उद्देश्य में सफलता प्राप्त हुई। राष्ट्रों के संघ का विचार मौलिक नहीं था और कई देशों में कई लोगों ने इस विचार को स्पष्ट करने में योगदान दिया था, किन्तु जिस राष्ट्रसंघ (League of Nations) की अन्तिम रूप से स्थापना की गई थी वह विल्सन की ही सृष्टि थी और उसके आदर्शों का मन्दिर था। कुछ विद्वानों का विचार है कि विल्सन ने स्वयं पेरिस में आकर एक भारी भूल की। यदि वह वाशिंगटन में रह कर ही अमेरिकन प्रतिनिधियों को आदेश देता रहता तो बहुत सम्भव था कि उसका प्रभाव अधिक व्यापक होता, पर विल्सन को सर्वाधिक चिन्ता राष्ट्रसंघ की थी और उसकी अभिलाषा थी कि विश्व संस्था के विधान का निर्माण वह स्वयं करे। वास्तव में यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि जहाँ सम्मेलन में उसकी उपस्थिति स्वयं सम्मेलन के लिए हितकर न रही, वहां अपने देश से दूर होकर वह अमेरिकी जनता से भी सम्पर्क स्थापित न रख सका जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उसके द्वारा पोषित राष्ट्रसंघ को उसके स्वयं के देश ने ही अस्वीकार कर दिया। अमेरिकन सीनेट ने विल्सन के राष्ट्रसंघ की सदस्यता के प्रस्ताव को नहीं माना। 1918 में कांग्रेस के चुनावों में विल्सन विरोधी रिपब्लिकन दल को कांग्रेस के दोनों सदनों में बहुमत प्राप्त हो गया और सीनेट ने राष्ट्रसंघ के विधान एवं वर्साय की सन्धि को स्वीकार करने के मसविदे को रद्द कर दिया। यह मानवता के एक महान् पैगम्बर का दुःखमय पराभव था।
 
== लोक प्रशासन संबंधी विचार ==
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