"विश्वरूप": अवतरणों में अंतर
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विश्वरूप अर्थात् विश्व(संसार) और रूप। अपने विश्वरूप में भगवान संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन एक पल में करा देते हैं। जिसमें ऐसी वस्तुऐं होती हैं जिन्हें मनुष्य नें देखा है परंतु ऐसी वस्तुऐं भी होतीं हैं जिसे मानव ने न ही देखा और न ही देख पाएगा।
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{{double image|right|Shivas Kinder - 0191.jpg|210|Vishnuvishvarupa.jpg|200|बाएँ: विश्वरूप, दाएँ: कई हाथ तथा पैरों वाले भगवान विश्वरूप सन् १९४० बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश}}
महाभारत में [[संजय]] को दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई जिससे वह कुरुक्षेत्र का हाल [[धृतराष्ट्र]] को कहने लगा।
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'''इन तीन प्रारंभिक ऋचाओं में बताया गया है''', सभी लोकों में व्याप्त महानारायण (विश्वरूप) सर्वात्मक होने से अनंत सिरों, आखों तथा पैरों वाले हैं। वह पाँच तत्वों (भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश) से बने समस्त व्यष्टि और समष्टि ब्रह्मांड को सब ओर से व्याप्त कर नाभि से दस अंगुल परिमित देश का अतिक्रमण हृदय में अंतर्यामी रूप में स्थित हैं। जो यह वर्तमान तथा अतीत जगत् है तथा जो भविष्य में होने वाला जगत् है जो जगत् के बीज अथवा परिणामभूत वीर्य से नर, पशु, वृक्ष आदि के रूप में प्रकट होता है, वह सब अमृतत्व (मोक्ष) के स्वामी महानारायण पुरुष का ही विस्तार है। इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात् भूत भविष्य वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है। वह विराट् पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है। इसीलिये यह सारा विराट् जगत् उसका चतुर्थांश है। इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है।
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'''ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे।'''
'''सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः॥'''
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'''अर्थात्''' हे अनंत हजारों स्वरूपों वाले हजारों पैरों, अखों, हृदयों तथा हजारों भुजाओं वाले। हजारों नाम वाले शाश्वत महापुरुष सहस्त्रकोटि युगों के धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। इस प्रकार इस श्लोक में भगवान का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।
गीता में बताया गया है,
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