"मृच्छकटिकम्": अवतरणों में अंतर
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'''मृच्छकटिकम्''' (अर्थात्, मिट्टी की गाड़ी) [[संस्कृत]] नाट्य साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय [[रूपक]] है। इसमें 10 अंक है। इसके रचनाकार महाराज [[शूद्रक]] हैं। नाटक की पृष्टभूमि [[पाटलिपुत्र]] (आधुनिक [[पटना]]) है। [[भरत मुनि|भरत]] के अनुसार दस रूपों में से यह 'मिश्र प्रकरण' का सर्वोत्तम निदर्शन है। ‘मृच्छकटिकम’ नाटक इसका प्रमाण है कि अंतिम आदमी को साहित्य में जगह देने की परम्परा भारत को विरासत में मिली है
== कथावस्तु ==
इसकी कथावस्तु कवि प्रतिभा से प्रसूत है। [[उज्जययिनी]] का निवासी सार्थवाह विप्रवर '''चारूदत्त''' इस प्रकरण का [[नायक]] है और दाखनिता के कुल में उत्पन्न '''वसंतसेना''' नायिका है। चारूदत्त की पत्नी धूता पूर्वपरिग्रह के अनुसार ज्येष्ठा है जिससे चारूदत्त को रोहितसेन नाम का एक पुत्र है। चारूदत्त किसी समय बहुत समृद्ध था परंतु वह अपने दया दाक्षिण्य के के कारण
इसकी कथावस्तु तत्कालीन समाज का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व करती है। यह केवल व्यक्तिगत विषय पर ही नहीं अपितु इस युग की शासन व्यवस्था एवं राज्य स्थिति पर भी प्रचुर प्रकाश डालता है। साथ ही साथ वह नागरिक जीवन का भी यथावत् चित्र अंकित करता है। इसमें नगर की साज
मृच्छकटिक’ की कथा का केन्द्र है
==दस अंकों का परिचय==
== साहित्यिक समीक्षा ==
मृच्छकटिक की न केवल कथावस्तु ही अत्यंत रोचक है, अपितु कवि की [[चरित्र चित्रण]] की चातुरी बहुत उच्च कोटि की है। यद्यपि इसमें प्रधान [[रस]] [[विप्रलंभ
मृच्छकटिक में दो कथाएँ हैं। एक चारुदत्त की, दूसरी आर्यक की। [[गुणाढ्य]] की [[बृहत्कथा]] में गोपाल दारक आर्यक के विद्रोह की कथा है। बृहत्कथा अपने मूल रूप में [[पैशाची]] भाषा में ‘बड्डकहा’ के नाम से लिखी गई थी। इससे प्रकट होता है कि यह नाटक ईस्वी पहली शती या दूसरी शती का है।
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यह नाटक संस्कृत साहित्य में अपना विशेष स्थान रखता है। इसमें–
*'''(१)''' गणिका का प्रेम है। विशुद्ध प्रेम, धन के लिए नहीं; क्योंकि वसंतसेना दरिद्र चारुदत्त से प्रेम करती है। गणिका कलाएँ जानने वाली ऊँचे दर्जे की वेश्याएँ होती थीं, जिनका समाज में आदर होता था। ग्रीक लोगों में ऐसी ही ‘हितायरा’ हुआ करती थीं।
*'''(२)''' गणिका गृहस्थी और प्रेम की अधिकारिणी बनती है, वधू बनती है, और कवि उसे समाज के सम्मान्य पुरुष ब्राह्मण चारुदत्त से ब्याहता है। ब्याह कराता है, रखैल नहीं बनाता। स्त्री-विद्रोह के प्रति कवि की सहानुभूति है। पाँचवें अंक में ही चारुदत्त और वसंतसेना मिल जाते हैं, परन्तु लेखक का उद्देश्य वहीं पूरा नहीं होता। वह दसवें अंक तक कथा बढ़ाकर राजा की सम्मति दिलवाकर प्रेमपात्र नहीं, [[विवाह]] कराता है। वसंतसेना अन्तःपुर में पहुँचना चाहती है और पहुँच जाती है। लेखक ने इरादतन यह नतीजा अपने सामने रखा है।
*'''(३)''' इस नाटक में कचहरी में होने वाले पाप और राजकाज की पोल का बड़ा यथार्थवादी चित्रण है, जनता के विद्रोह की कथा है।
*'''(४)''' इस नाटक का नायक राजा नहीं है, व्यापारी है, जो व्यापारी-वर्ग के उत्थान का प्रतीक है।
*'''(५)''' इसमें दो भाषाओं का प्रयोग है, जैसा कि प्रायः संस्कृत के और नाटकों में है। राजा, ब्राह्मण और पढ़े-लिखे लोग संस्कृत बोलते हैं, और स्त्रियां और निचले तबके के लोग
ये इसकी विशेषताएँ हैं। इस नाटक की राजनीतिक विशेषता यह है कि इसमें क्षत्रिय राजा बुरा बताया गया है। गोप-पुत्र 'आर्यक' एक ग्वाला है, जिसे कवि राजा बनाता है। यद्यपि कवि वर्णाश्रम को मानता है, पर वह गोप को ही राजा बनाता है।
ऐसा लगता है कि यह मूलकथा पुरानी है और सम्भवतः यह घटना कोई वास्तविक घटना है जो किंवदन्ती में रह गई। दासप्रथा के लड़खड़ाते समाज का चित्रण बहुत सुन्दर हुआ है, और यह हमें [[चाणक्य]] के समय में मिलता है, जब ‘आर्य’ शब्द ‘नागरिक’ ([[रोमन]] : 'Citizen') के रुप में प्रयुक्त मिलता है। हो सकता है, कोई पुरानी किंवदन्ती चाणक्य के बाद के समय में इस कथा में उतर आई हो। [[महात्मा बुद्ध|बुद्ध]] के समय में व्यापारियों का उत्कर्ष भी काफी हुआ था। तब उज्जयिनी का राज्य अलग था, कोसल का अलग। यहाँ भी उज्जयिनी का वर्णन है। एक जगह लगता है कि उस समय भी [[भारत]] की एकता का आभास था, जब कहा गया है कि 'सारी पृथ्वी आर्यक ने जीत ली' – वह पृथ्वी जिसकी कैलास पताका है। देखा जाए तो कवि यथार्थवादी था और निष्पक्ष था। उसने सबकी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दिखाई
== रचनाकार एवं रचनाकाल ==
यह महाराज [[शूद्रक]] की कृति मानी जाती है जो [[भास]] और [[कालिदास]] की भांति राज कवि हुए है । मृच्छकटिक ईसवी प्रथम शती के लगभग की रचना कही जा सकती है। कहा जाता है,
=== प्राचीनता ===
मृच्छकटिक’ की कथा का केन्द्र है उज्जयिनी। वह इतना बड़ा नगर है कि [[पाटलिपुत्र]] का संवाहक उसकी प्रसिद्धि सुनकर बसने को, धन्धा प्राप्त करने को, आता है। उस समय वह पाटलिपुत्र को महानगर नहीं कहता। इसका मतलब है कि उस समय पाटलिपुत्र से अधिक महत्व उज्जयिनी का था। स्पष्ट ही पाटलिपुत्र बुद्ध के समय में पाटलिपुत्र (ग्राम) था, जबकि उज्जयिनी में महासेन चण्ड प्रद्योत का समृद्ध राज्य था। दूसरी प्राचीनता है कि इसमें दास प्रथा बहुत है। दास-दासी धन देकर आज़ाद कर लिए जाते थे। उस समाज में [[गणिका]] भी वधू बन जाती थी। यह सब बातें ऐसे समाज की हैं, जहाँ ज़्यादा कड़ाई नहीं मिलती, जो बाद में चालू हुई थी। बल्कि कवि ने गणिका को वधू बनाकर समाज में एक नया आदर्श रखा है। उसमें विद्रोह की भावना है। अत्याचारी को वह पशु की तरह मरवाता है, स्त्री को ऊँचा उठाता तथा दास स्थावरक को आज़ाद करता है। यों कह सकते हैं कि यह नाटक जोकि शास्त्रीय शब्दों में प्रकरण है – बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। कौन जानता है, ऐसे न जाने कितने सामाजिक नाटक काल के गाल में खो गए। [[हूण|हूणों]] से लेकर तुर्कों तक के विध्वंसों ने न जाने कितने ग्रन्थ-रत्न जला डाले !
== अनुवाद एवं टीकाएँ ==
मृच्छकटिक पर अनेक टीकाएँ लिखी गई। इसके अनेक [[अनुवाद]] भी हुए है और अनेक संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें से सर्वप्राचीन टीका [[पृथ्वीधर]] की है। [[जीवानंद]] ने भी एक व्यापक टीका लिखी। हरिदास की व्याख्या अत्यंत मार्मिक है। आर्थर रायडर द्वारा इसका अंग्रेजी
== बाहरी कड़ियाँ ==
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