"दादा भाई नौरोजी": अवतरणों में अंतर
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नौरोजी, दादाभाई का जन्म ४ सितम्बर १८२५ में हुआ एवं मृत्यु ३० जून १९१७ में हुई | विश्वविद्यालयों की स्थापना के पूर्व के दिनों में एलफिंस्टन इंस्टीटयूट में इन्होंने शिक्षा पाई जहाँ के ये मेधावी छात्र थे। उसी संस्थान में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ कर आगे चलकर वहीं वे गणित के प्रोफेसर हुए, जो उन दिनों भारतीयों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में सर्वोच्च पद था। साथ में उन्होंने समाजसुधार कार्यों में अग्रगामी और कई धार्मिक तथा साहित्य संघटनों के, यथा "स्टूडेंट्स लिटरेरी ऐंड सांइटिफिक सोसाइटी के, प्रतिष्ठाता के रूप में अपना विशेष स्थान बनाया। उसकी दो शाखाएँ थीं, एक मराठी ज्ञानप्रसारक मंडली और दूसरी गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली। रहनुमाई सभी की भी स्थापना इन्होंने की थी।' "रास्त गफ्तार' नामक अपने समय के समाज सुधारकों के प्रमुख पत्र का संपादन तथा संचालन भी इन्होंने किया।
पारसियों के इतिहास में अपनी दानशीलता और प्रबुद्धता के लिए प्रसिद्ध "कैमास' बंधुओं ने दादाभाई को अपने व्यापार में भागीदार बनाने के लिए आमंत्रित किया। तदनुसार दादाभाई लंदन और लिवरपूल में उनका कार्यालय स्थापित करने के लिए इंग्लैंड गए। विद्यालय के वातावरण को छोड़कर एकाएक व्यापारी धन जाना एक प्रकार की अवनति या अपवतन समझा जा सकता है, परंतु दादा भाई ने इस अवसर को इंग्लैंड में उच्च शिक्षा के लिए जानेवाले विद्यार्थियों की भलाई के लिए उपयुक्त समझा। इसके साथ ही साथ उनका दूसरा उद्देश्य सरकारी प्रशासकीय संस्थाओं का अधिक से अधिक भारतीयकरण करने के लिए आंदोलन चलाने का भी था। जो विद्यार्थी उन दिनों उनके संपर्क में आए और उनसे प्रभावित हुए उनमें सुप्रसिद्ध <references/फीरोजशाह मेहता>, मोहनदास कर्मचंद गांधी और मुहम्मद अली जिना का नाम उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त दादाभाई का एक और उद्देश्य ब्रिटिश जनता को ब्रिटिश शासन से उत्पीड़ित भारतीयों के दु:खों की जानकारी कराना और उन्हें दूर करने के उनके उत्तरदायित्व की ओर ध्यान आकर्षित कराना भी था,
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