"ज़मींदारी प्रथा": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Maharaja Lakshmeshwar Singh statue - Kolkata.JPG|दरभंगा के जमींदार '''लक्ष्मणेश्वर सिंह''']]
'''जमींदारी प्रथा''' [[भारत]] में [[मुगल काल]] एवं [[ब्रिटिश काल]] में प्रचलित एक राजनैतिक-सामाजिक कुरीति थी जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वालों का न होकर किसी और (जमींदार) का होता था जो खेती करने वालों से [[कर]] वसूलते थे।
== परिचय एवं इतिहास ==
भारत की प्राचीन विचारधारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। भूमि भी वायु, जल एवं प्रकाश की तरह प्रकृतिदत्त उपहार मानी जाती थी। महर्षि [[जैमिनि]] के मतानुसार "राजा भूमि का समर्पण नहीं कर सकता था क्योंकि यह उसकी संपत्ति नहीं वरन् मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इसपर सबका समान रूप से अधिकार है"। [[मनु]] का भी स्पष्ट कथन है कि "ऋषियों के मतानुसार भूमिस्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया था जोता" ([[मनुस्मृति]], 8, 237,239)। अतएव प्राचीन भारत के काफी बड़े भाग में भूमि पर ग्राम के प्रधान का निर्वाचन ग्रामसमुदाय करता था तथा उसकी नियुक्ति राज्य की सम्मति से होती थी। राज्य उसे भूमिकर न देने पर हटा सकता था, यद्यपि यह पद वंशानुगत था तथा इसकी प्राप्ति के लिये जनमत तथा राज्यस्वीकृति आवश्यक थी। अतएव वर्तमान समय के जमींदारों से, जो निर्वाचित नहीं होते वे भिन्न थे।
प्राचीन भारत में भूमि का संपत्ति के रूप में क्रयविक्रय
मुख्य प्रश्न तो यह है कि भूमि पर स्वत्व अधिकार किसको - राज्य को, कृषक को अथवा किसी मध्यवर्ती वर्ग को विद्वानों के मतानुसार प्राचीन भारत में यह अधिकार (Servitus) ही था जो स्वत्व अधिकार नहीं कहा जा सकता।
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