"अभिलेख": अवतरणों में अंतर
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== लेखनपद्धति ==
लेखनपद्धति में सबसे पहले प्रश्न आता है व्यक्तिगत अक्षरों की दिशा का। अत्यंत प्राचीन काल से अब तक अक्षरों की बनावट और अंकन में प्राय: एकरूपता पाई जाती है। अक्षर ऊपर से नीचे लंबवत् खचित अथवा उत्कीर्ण होते हैं मानों किसी कल्पित रेखा से वे लटकते हों। आधुनिक कन्नड़ के आड़े अक्षर भी उसी कल्पित रेखा के नीचे सँजोए जाते हैं। अक्षरों का ग्रंथन प्राय: एक सीधी आधारवत् रेखा के ऊपर होता है। इस पद्धति के अपवाद चीनी और जापानी अभिलेख हैं, जिनमें पंक्तियाँ लंबवत् ऊपर से नीचे लिखी जाती हैं। लेखन पद्धति का दूसरा प्रश्न है लेखन की दिशा। भारोपीय लिपियाँ की लेखनदिशा बाएँ से दाएँ तथा सामी और हामी लिपियों की दाएँ से बाएँ मिलती है। कुछ प्राचीन यूनानी अभिलेखों और बहुत थोड़े भारतीय अभिलेखों में लेखनदिशा गोमूत्रिका सदृश (पहली पंक्ति में दाएँ से बाएँ, दूसरी पंक्ति में बाएँ से दाएँ और आगे क्रमश: इस प्रकार) पाई जाती है। चीनी और जापानी अभिलेखों में पंक्तियाँ ऊपर से नीचे और लेखनदिशा दाएँ से बाएँ होती है। प्रारंभिक काल में अक्षरों के ऊपर की रेखा काल्पनिक थी अथवा किसी अस्थायी पदार्थ से लिखकर मिटा दी जाती थी। आगे चलकर वह वास्तविक हो गई, यद्यपि यूनानी और रोमन अभिलेखों में वह अक्षरों के नीचे आ गई। भारतीय अक्षरों में क्रमश: शिरोरेखा बनाने की प्रथा चल गई जो कल्पित (पुन: वास्तविक) रेखा पर बनाई जाती थी। प्राचीन अभिलेखों में एक शब्द के अक्षरों का समूहीकरण और शब्दों के पृथक्करण पर ध्यान कम दिया जाता था, जहाँ तक कि वाक्यों को अलग करने के लिए भी किसी चिह्नृ का प्रयोग नहीं होता था जिन भाषाओं का व्याकरण नियमित था उनके अभिलेख पढ़ने और समझने में कठिनाई नहीं होती, शेष में कठिनाई उठानी पड़ती है। विरामचिह्नों का प्रयोग भी पीछे चलकर प्रचलित हुआ। भारतीय अभिलेखों में पूर्ण विराम के लिए दंडवत् रेखा (।), दो रेखा (।।) अथवा शिरोरेखा के लिए दंडवत् रेखा (च्र्) का प्रयोग होता था। किसी अभिलेख के अंत में तीन दंडवत् देखाओं (।।।) का भी प्रयोग होता था। सामी तथा यूरोपीय अभिलेखों में वाक्य के अंत में एक विंदु (.), दो बिंदु (:) अथवा शून्य (0) लगाने की प्रथा थी। इसी प्रकार अभिलेखों में पृष्ठीकरण
== अभिलेख के प्रकार ==
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