"एकांकी": अवतरणों में अंतर
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ऐतिहासिक आख्यान तथा समाजसुधार के प्रसंग ही उपर्युक्त एकांकियों के विषय हैं। इन्हें आधुनिक एकांकी का प्रांरभिक रूप कहा जा सकता है। कला का विकसित रूप इनमें नहीं मिलता; शैलियाँ परस्पर कुछ भिन्न हैं पर परंपरा एक ही है। उक्त एकांकी अभिनेय की अपेक्षा पाठय अधिक हैं। लेखकों का झुकाव जीवन की स्थूलता का वर्णन करने की ओर है; वृत्तियों की सूक्ष्म विवृत्ति इनमें नहीं मिलती। प्ररोचना, प्रस्तावना, सूत्रधार, नांदी, मंगलाचरण, एकाधिक दृश्ययोजना, भरतवाक्य आदि के प्रयोग कहीं हैं, कहीं नहीं भी हैं। आकार सर्वत्र लंबे हैं, अंक भी दृश्य और दृश्य भी गर्भाक जैसे हो गए हैं। संकलनत्रय के निर्वाह का अभाव है, शिथिल संवादों का बाहुल्य एवं विकास तथा विन्यासहीन कथायोजना का आधिक्य है। इनमें से कुछ प्रहसन के रूप में लिखे गए हैं, पर उनमें निर्मल हास्य न होकर व्यंग्य की मात्रा ही अधिक है। एकांकी के लिए अपेक्षित प्रमुख गुण कार्य (ऐक्शन) का इनमें अभाव है।
(२) एकांकी के दूसरे युग में जयशंकर प्रसाद का "एक घूँट' लिखा गया जिसपर संस्कृत का भी प्रभाव है और बँगला के माध्यम से आए पाश्चात्य एकांकी शिल्प का भी। प्रसाद जी ने इसी बीच "कल्याणी परिणय' भी लिखा, पर वह अभी तक अप्रकाशित है। साथ ही
(३) एकांकी का तीसरा चरण भुवनेश्वप्रसाद के "कारवाँ' संग्रह से शुरू होता है जिसमें छह एकांकी हैं। १९३८ ई में "हंस' का एकांकी अंक प्रकाशित हुआ। इसमें तत्कालीन प्रतिनिधि एकांकी प्रस्तुत किए गए। इसी बीच सत्येंद्र का "कुनाल', पृथ्वीनाथ शर्मा का "दुविधा', रामकुमार वर्मा का "पृथ्वीराज की आँखें'; सूर्यशरण पारीक का "बैलावण या प्रतिज्ञापूर्ति' आदि प्रकाशित हुए। उदयशंकर भट्ट, सेठ गोविंददास प्रभृति एकांकीकार भी इसी काल में एकांकी लेखन की ओर प्रवृत्त हुए और उनके कई सशक्त एकांकी प्रकाश में आए।
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