"उत्परिवर्तन": अवतरणों में अंतर
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'''किरणन''' या '''विकिरण''' (Irradiation)- द्वारा उत्परिवर्तन की संभावना पर एच. जे. मुलर ने सन् 1927 में कुछ प्रयोग किए थे। उन्होंने ड्रोसोफिला पर एक्स-किरणों का प्रक्षेपण करके अनेक प्रकार के उत्परिवर्तन उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की। तब से अब तक मक्का, जौ, कपास, चुहिया आदि पर भी किरणन के प्रभावों का अध्ययन करने को जिस विधि को निकाला, उस सी.एल.बी (C.L.B.) विधि कहते हैं। इस विधि द्वारा ड्रोसोफिला के एक्स-गुणसूत्रों में नए घातक (lethal) जोनों की खोज की जाती है।
सी.एल.बी. का तात्पर्य है : '''सी''' = cross-over suppressor. '''एल''' = recessive lethal तथा '''बी''' = bar
[[एक्स-किरण]] का प्रभाव उसकी मात्रा पर निर्भर करता है। मुलर ने मात्रा में वृद्धि करके उत्परिवर्तन दर में वृद्धि का प्रभाव देखा था। आगे चलकर उनके शिष्य ओलिवर ने और भी प्रयोग किए और अनेक प्रकार के तथ्य उपस्थित किए। एक्स-किरणों का प्रभाव इतना अधिक इसलिए पड़ता है कि वे गुणसूत्रों को भंग कर देती हैं, जिनसे भाँति भाँति के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। इनके अतंर्गत् स्थानांतरण प्रतिलोमन (inversion), डिलीशन (delition) द्विगुणन आदि समाविष्ट हैं। सच पूछिए तो किरणन, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, तभी उत्परिवर्तन करता है, जब उसमें आयन उत्पन्न करने की क्षमता हो। उदाहरण के लिए, रेडियम में तीन प्रकार के [[विकिरण]] (अल्फा, बीटा, गामा) उत्पन्न होते हैं। लैन्सन ने [[गामा विकिरण]] पर कई सफल प्रयोग किए हैं।
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