"उर्दू साहित्य": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
115.243.1.21 (वार्ता) द्वारा किए बदलाव 2355926 को पूर्ववत किया |
Sanjeev bot (वार्ता | योगदान) छो पूर्णविराम (।) से पूर्व के खाली स्थान को हटाया। |
||
पंक्ति 21:
अब उर्दू के दिल्ली स्कूल का आरंभ होता है। यह बात स्मरणीय है कि यह सामंत काल के पतन का युग था। मुगल राज केवल अंदर से ही दुर्बल नहीं था वरन् बाहर से भी उसपर आक्रमण होते रहते थे। इस स्थिति से जनता की बोलचाल की भाषा ने लाभ उठाया। अगर राज्य प्रबल होता तो न [[नादिर शाह]] दिल्ली को लूटता और न फारसी की जगह जनता की भाषा मुख्य भाषा का स्वरूप धारण करती। इस समय के कवियों में [[ख़ाने आरज़ू]], [[आबरू]], [[हातिम]] (1783 ई.), [[यकरंग]], [[नाज़ी]],[[मज़मून]], [[ताबाँ]], (1748 ई.), [[फ़ुगाँ]] (1772 ई.), "मज़हर जानेजानाँ", "फ़ायेज़" इत्यादि उर्दू साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान रखते हैं। दक्षिण में प्रबंध काव्यों और मरसियों (शोक कविताओं) की उन्नति हुई थी, दिल्ली में गजल का बोलबाला हुआ। यहाँ की प्रगतिशील भाषा हृदय के सूक्ष्म भावों को प्रकट करने के लिए दक्षिणी भाषा की अपेक्षा अधिक समर्थ थी इसलिए गजल की उन्नति स्वाभाविक जान पड़ती है। यह बात भी याद रखने योग्य है कि इस समय की कविताओं में श्रृंृंगाररस और भक्ति के विचारों को प्रमुख स्थान मिला है। सैंकड़ों वर्ष के पुराने समाज की बाढ़ रुक गई थी और जीवन के सामने कोई नया लक्ष्य नहीं था इसलिए इस समय की कविता में कोई शक्ति और उदारता नहीं दिखलाई पड़ती। 18वीं शताब्दी के समाप्त होने से पहले एक ओर नई-नई राजनीतिक शक्तियाँ सिर उठा रहीं थी जिससे मुगल राज्य निर्बल होता जा रहा था, दूसरी ओर वह सभ्यता अपनी परंपराओं की रोगी सुंदरता की अंतिम बहार दिखा रही थी। दिल्ली में उर्दू कविता और साहित्य के लिए ऐसी स्थिति पैदा हो रही थी कि उसकी पहुँच राजदरबार तक हो गई। मुगल बादशाह शाहआलम (1759-1806 ई.) स्वयं कविता लिखते थे और कवियों को आश्रय देते थे। इस युग में जिन कवियों ने उर्दू साहित्य का सिर ऊँचा किया, वे हैं [[मीर दर्द]] (1784 ई.), [[मिर्ज़ा सौदा]] (1785 ई.), [[मीर तक़ी "मीर"]] (1810 ई.) और "मीर सोज़"। इनके विचारों की गहराई और ऊँचाई, भाषा की सुंदरता तथा कलात्मक निपुणता प्रत्येक दृष्टि से सराहनी है। "दर्द" ने सूफी विचार के काव्य में, "मीर" ने गजल में और "सौदा" समस्त क्षेत्रों में उर्दू कविता की सीमाएँ विस्तृत कर दी।
परंतु दिन बहुत बुरे आ गए थे। [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] का दबाव बढ़ता जा रहा था और दिल्ली का राजसिंहासन डावाँडोल था। विवश होकर शाह आलम ने अपने को कंपनी की रक्षा में दे दिया और पेंशन लेकर दिल्ली छोड़ प्रयाग में बंदियों की भाँति जीवन बिताने लगे। इसका फल यह हुआ कि बहुत से कवि और कलाकार अन्य स्थानों को चले गए। इस समय कुछ नए नए राजदरबार स्थापित हो गए थे, जैसे हैदराबाद, अवध, अजीमाबाद (पटना), फर्रुखाबाद
सन् 1775 ई. में लखनऊ अवध की राजधानी बना। उसी समय से यहाँ फारसी-अरबी की शिक्षा बड़े पैमाने पर आंरभ हुई और अवधी के प्रभाव से उर्दू में नई मिठास उत्पन्न हुई। क्योंकि यहाँ के नवाब शिया मुसलमान थे और वह शिया धर्म की उन्नति और शोभा चाहते थे, इसलिए यहाँ को काव्यरचना में कुछ नई प्रवृत्तियाँ पैदा हो गई जो लखनऊ की कविता को दिल्ली की कविता से अलग करती हैं। उर्दू साहित्य के इतिहास में दिल्ली और लखनऊ स्कूल की तुलना बड़ा रोचक विषय बनी रही है; परंतु सच यह है कि सांमती युग की पतनशील सीमाओं के अंदर दिल्ली और लखनऊ में कुछ बहुत अंतर नहीं था। यह अवश्य है कि लखनऊ में भाषा और जीवन के बाह्य रूप पर अधिक जोर दिया जाता था और दिल्ली में भावों पर। परंतु वस्तुत: दिल्ली की ही साहित्यिक परंपराएँ थीं जिन्होंने लखनऊ की बदली हुई स्थिति में यह रूप धारण किया। यहाँ के कवियों में "मीर", "मीर हसन", "सौदा", "इंशा", "मुसहफ़ी", "जुरअत", के पश्चात [[आतिश]] (1847 ई.), [[नासिख]] (1838 ई.), "अनोस" (1874 ई.), "दबीर" (1875 ई.), "वज़ीर", "नसीम", "रश्क", "रिंद ओर "सबा" ऊँचा स्थान रखते हैं। लखनऊ में मरसिया और मसनवी की विशेष रूप से उन्नति करने का अवसर मिला।
|