"ऐतरेय उपनिषद": अवतरणों में अंतर
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इस प्रकार ईक्षण से लेकर परमात्मा के प्रवेशपर्यन्त जो सृष्टिक्रम बतलाया गया है, इसे ही विद्यारण्यस्वामी ने ईश्वर सृष्टि कहा है। ‘ईक्षणादिप्रवेशान्तः संसार ईशकल्पितः। इस आख्यायिकामें बहुत-सी विचित्र बातें देखी जाती हैं। यों तो माया में कोई भी बात कुतूहलजनक नहीं हुआ करती; तथापि आचार्यका तो कथन है कि यह केवल अर्थवाद है। इसका अभिप्राय आत्मबोध कराने में है। यह केवल आत्माके अद्वितीयत्वका बोध कराने के लिये ही कही गयी है; क्योकि समस्त संसार आत्माका ही संकल्प होनेके कारण आत्मस्वरूप ही है। द्वितीय अध्यात्म के आरम्भ में इसी प्रकार उपक्रम कर भगवान् भाष्याकारने आत्मतत्वका बड़ा सुन्दर और युक्तियुक्त विवेचन किया है।
इस अध्याय में आत्मज्ञानके हेतुभूत वैराग्य की सिद्धिके लिये जीवकी तीन अवस्थाओंका-जिन्हें प्रथम अध्यायमें ‘आवसथ’’ नामसे कहा है- वर्णन किया गया है। जीवके तीन जन्म माने गये हैं- (1) वीर्यरूपसे माताकी कुक्षिमें प्रवेश करना, (2) बालकरूप से उत्पन्न होना और (3) पिताका मृत्युको प्राप्त होकर पुनः जन्म ग्रहण करना। ‘आत्मा वै पुत्रनामासि’ (कौषी) ०
इस प्रकार द्वितीय अध्यायमें आत्माज्ञान को परमपद-प्राप्तिका एकमात्र साधन बतलाकर तीसरे अध्यायमें उसी का प्रतिपादन किया गया है। वहाँ बतलाया है कि हृदय मन, संज्ञान, आज्ञान, विज्ञान, मेधा, दृष्टि, धृत, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु काम एवं वश-ये सब प्रज्ञान के ही नाम हैं। यह प्रज्ञान ही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पश्चमहाभूत तथा उद्विज्ज, स्वेदज अण्डज और जरायुज आदि सब प्रकार जीव-जन्तु हैं। यही हाथी, घोड़े, मनुष्य तथा सम्पूर्ण स्थावर जङ्गम जगत् है। इस प्रकार यह सारा संसार प्रज्ञानमें स्थिति है, प्रज्ञानसे ही प्रेरित होनेवाला है और स्वयं भी प्रज्ञानस्वरूप ही है, तथा प्रज्ञान ही ब्रह्म है। जो इस प्रकार जानता है वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस परमाधाम में पहुँच समस्त कामनाओं को प्राप्त कर अमर हो जाता है।
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