"अल-अनआम": अवतरणों में अंतर

छो पूर्ण विराम की स्थिति ठीक की।
छो कोष्टक से पहले खाली स्थान छोड़ा।
पंक्ति 98:
(पैग़म्बर) वह लोग थे जिनको हमने (आसमानी) किताब और हुकूमत और नुबूवत अता फरमाई पस अगर ये लोग उसे भी न माने तो (कुछ परवाह नहीं) हमने तो उस पर ऐसे लोगों को मुक़र्रर कर दिया हे जो (उनकी तरह) इन्कार करने वाले नहीं (90)
(ये अगले पैग़म्बर) वह लोग थे जिनकी ख़ुदा ने हिदायत की पस तुम भी उनकी हिदायत की पैरवी करो (ऐ रसूल उन से) कहो कि मै तुम से इस (रिसालत) की मज़दूरी कुछ नहीं चाहता सारे जहाँन के लिए सिर्फ नसीहत है (91)
और बस और उन लोगों (यहूद) ने ख़़ुदा की जैसी क़दर करनी चाहिए न की इसलिए कि उन लोगों ने (बेहूदे पन से) ये कह दिया कि ख़़ुदा ने किसी बषर (इनसान) पर कुछ नाज़िल नहीं किया (ऐ रसूल) तुम पूछो तो कि फिर वह किताब जिसे मूसा लेकर आए थे किसने नाज़िल की जो लोगों के लिए रौषनी और (अज़सरतापा (सर से पैर तक)) हिदायत (थी जिसे तुम लोगों ने अलग-अलग करके काग़जी औराक़ (कागज़ के पन्ने) बना डाला और इसमें को कुछ हिस्सा (जो तुम्हारे मतलब का है वह) तो ज़ाहिर करते हो और बहुतेरे को (जो खि़लाफ मदआ है) छिपाते हो हालाॅकि उसी किताब के ज़रिए से तुम्हें वो बातें सिखायी गयी जिन्हें न तुम जानते थे और न तुम्हारे बाप दादा (ऐ रसूल वह तो जवाब देगें नहीं) तुम ही कह दो कि ख़ुदा ने (नाज़िल फरमाई) (92)
उसके बाद उन्हें छोड़ के (पडे़ झक मारा करें (और) अपनी तू तू मै मै में खेलते फिरें और (क़ुरान) भी वह किताब है जिसे हमने बाबरकत नाज़िल किया और उस किताब की तसदीक़ करती है जो उसके सामने (पहले से) मौजूद है और (इस वास्ते नाज़िल किया है) ताकि तुम उसके ज़रिए से एहले मक्का और उसके एतराफ़ के रहने वालों को (ख़ौफ ख़ुदा से) डराओ और जो लोग आखि़रत पर इमान रखते हैं वह तो उस पर (बे ताम्मुल) इमान लाते है और वही अपनी अपनी नमाज़ में भी पाबन्दी करते हैं (93)
और उससे बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जो ख़ुदा पर झूठ (मूठ) इफ़तेरा करके कहे कि हमारे पास वही आयी है हालाॅकि उसके पास वही वगै़रह कुछ भी नही आयी या वह ्यख़्स दावा करे कि जैसा क़ुरान ख़़ुदा ने नाज़िल किया है वैसा मै भी (अभी) अनक़रीब (जल्दी) नाज़िल किए देता हूँ और (ऐ रसूल) काष तुम देखते कि ये ज़ालिम मौत की सख़्तियों में पड़ें हैं और फरिष्ते उनकी तरफ (जान निकाल लेने के वास्ते) हाथ लपका रहे हैं और कहते जाते हैं कि अपनी जानें निकालो आज ही तो तुम को रुसवाई के अज़ाब की सज़ा दी जाएगी क्योंकि तुम ख़ुदा पर नाहक़ (नाहक़) झूठ छोड़ा करते थे और उसकी आयतों को (सुनकर उन) से अकड़ा करते थे (94)
पंक्ति 120:
और उन लोगों ने ख़ुदा की सख़्त सख़्त क़समें खायीं कि अगर उनके पास कोई मौजिजा़ आए तो वह ज़रूर उस पर इमान लाएँगे (ऐ रसूल) तुम कहो कि मौजिज़े तो बस ख़ुदा ही के पास हैं और तुम्हें क्या मालूम ये यक़ीनी बात है कि जब मौजिज़ा भी आएगा तो भी ये ईमान न लाएँगे (110)
और हम उनके दिल और उनकी आँखें उलट पलट कर देंगे जिस तरह ये लोग कु़रान पर पहली मरतबा ईमान न लाए और हम उन्हें उनकी सरकषी की हालत में छोड़ देंगे कि सरगिरदाँ (परेषान) रहें (111)
और (ऐ रसूल सच तो ये है कि) हम अगर उनके पास फरिष्ते भी नाज़िल करते और उनसे मुर्दे भी बातें करने लगते और तमाम (मख़फ़ी (छुपी)) चीज़ें (जैसे जन्नत व नार वग़ैरह) अगर वह गिरोह उनके सामने ला खड़े करते तो भी ये ईमान लाने वाले न थे मगर जब अल्लाह चाहे लेकिन उनमें के अक्सर नहीं जानते (112)
कि और (ऐ रसूल जिस तरह ये कुफ़्फ़ार तुम्हारे दुष्मन हैं) उसी तरह (गोया हमने ख़़ुद आज़माइष के लिए ्यरीर आदमियों और जिनों को हर नबी का दुष्मन बनाया वह लोग एक दूसरे को फरेब देने की ग़रज़ से चिकनी चुपड़ी बातों की सरग़ोषी करते हैं और अगर तुम्हारा परवरदिगार चाहता तो ये लोग) ऐसी हरकत करने न पाते (113)
तो उनको और उनकी इफ़तेरा परदाज़ियों को छोड़ दो और ये (ये सरग़ोषियाँ इसलिए थीं) ताकि जो लोग आख़िरत पर इमान नहीं लाए उनके दिल उन (की ्यरारत) की तरफ मायल (ख्ंिाच) हो जाएँ और उन्हें पसन्द करें (114)
पंक्ति 163:
लेकिन इस तरीके पर कि (उसके हक़ में) बेहतर हो यहाँ तक कि वह अपनी जवानी की हद को पहुंच जाए और इन्साफ के साथ नाप और तौल पूरी किया करो हम किसी षख़्स को उसकी ताक़त से बढ़कर तकलीफ नहीं देते और (चाहे कुछ हो मगर) जब बात कहो तो इन्साफ़ से अगरचे वह (जिसके तुम खि़लाफ न हो) तुम्हारा अज़ीज़ ही (क्यों न) हो और ख़ुदा के एहद व पैग़ाम को पूरा करो यह वह बातें हैं जिनका ख़़ुदा ने तुम्हे ं हुक्म दिया है कि तुम इबरत हासिल करो और ये भी (समझ लो) कि यही मेरा सीधा रास्ता है (153)
तो उसी पर चले जाओ और दूसरे रास्ते पर न चलो कि वह तुमको ख़़ुदा के रास्ते से (भटकाकर) तितिर बितिर कर देगें यह वह बातें हैं जिनका ख़ुदा ने तुमको हक्म दिया है ताकि तुम परहेज़गार बनो (154)
फिर हमनें जो नेक़ी करें उस पर अपनी नेअमत पूरी करने के वास्ते मूसा को क़िताब (तौरौत) अता फरमाई और उसमें हर चीज़ की तफ़सील (बयान कर दी ) थी और (लोगों के लिए अज़सरतापा (सर से पैर तक)) हिदायत व रहमत है ताकि वह लोग अपनें परवरदिगार के सामने हाज़िर होने का यक़ीन करें (155)
और ये किताब (क़ुरान) जिसको हमने (अब नाज़िल किया है क्या है-बरक़त वाली किताब) है तो तुम लोग उसी की पैरवी करो (और ख़ुदा से) डरते रहो ताकि तुम पर रहम किया जाए (156)
(और ऐ मुषरेकीन ये किताब हमने इसलिए नाज़िल की कि तुम कहीं) यह कह बैठो कि हमसे पहले किताब ख़ुदा तो बस सिर्फ दो ही गिरोहों (यहूद व नसारा) पर नाज़िल हुयी थी अगरचे हम तो उनके पढ़ने (पढ़ाने) से बेखबर