"घनानन्द": अवतरणों में अंतर

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रूपक, उत्प्रेछा एवं विरोधाभास आदि अलंकारो का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है | 'विरोधाभास ' घनानंद का प्रिय
अलंकर है | आचार्य विश्वनाथ ने उनके बारे में लिखा है |"विरोधाभास के अधिक प्रयोग से उनकी कविता भरी पड़ी है |
जहाँ इस प्रकार की कृति दिखाई दे , उसे निःसंकोच इनकी कृति घोषित किया जा सकता है |"
 
== छंद-विधान ==
पंक्ति 51:
कैसी फबी घनानन्द चोपनि सों पहिरी चुनी सावँरी सारी || <br />
घनानंद के काव्य की एक प्रमुख विशेषता है- भाव प्रवणता के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वाभाविक वक्रता | घनानंद का प्रेम लौकिक प्रेम की भाव भूमि से उपर उठकर आलौकिक प्रेम की बुलंदियों को छुता हुआ नजर आता है , तब कवि की प्रियासुजान ही परब्रह्म का रूप बन जाती है | ऐसी दशा में घनानंद प्रेम से उपर उठ कर भक्त बन जाते हैं |
 
'''नेही सिरमौर एक तुम ही लौं मेरी दौर,''' <br />
पंक्ति 59:
 
<poem>
बहुत दिनान को अवधि आसपास परे ,
खरे अरबरनि भरे हैं उठी जानको को |
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,