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कुन्तक अभिधा की सर्वातिशायिनी सत्ता स्वीकार करने वाले आचार्य थे। परंतु यह अभिधा संकीर्ण आद्या शब्दवृत्ति नहीं है। अभिधा के व्यापक क्षेत्र के भीतर लक्षणा और व्यंजना का भी अंतर्भाव पूर्ण रूप से हो जाता है। वाचक शब्द द्योतक तथा व्यंजक उभय प्रकार के शब्दों का उपलक्षण है। दोनों में समान धर्म अर्थप्रतीतिकारिता है। इसी प्रकार प्रत्येयत्व (ज्ञेयत्व) धर्म के सादृश्य से द्योत्य और व्यंग्य अर्थ भी उपचारदृष्ट्या वाच्य कहे जा सकते हैं।
उनकी एकमात्र रचना [[वक्रोक्तिजीवित]] है जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। [[वक्रोक्ति अलंकार|वक्रोक्ति]] को वे [[काव्य]] का 'जीवित' (जीवन, प्राण) मानते हैं। वक्रोक्तिजीवित में वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा माना गया है जिसका और आचार्यों ने खंडन किया
:'''वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगीभणितिरुच्यते'''। (वक्रोक्तिजीवित 1.10)
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