"चिकित्सालय": अवतरणों में अंतर

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आजकल समाजसेवा चिकित्सा का एक अंग बन गई है और दिनों-दिन चिकित्सालय तथा चिकित्सा में समाजसेवी का महत्व बढ़ता जा रहा है। औषधोपचार के अतिरिक्त रोगी की मानसिक, कौटुंबिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन करना और रोगी की तज्जन्य कठिनाइयों को दूर करना समाजसेवी का काम है। रोगी की रोगोत्पति में उसकी रुग्णावस्था में उसके कुटुंब को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तथा रोग से या अस्पताल से रोगी के मुक्त हो जाने के पश्चात कौन-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, उनका रोगी पर क्या प्रभाव होगा आदि रोगी के संबंध की ये सब बातें समाजसेवी के अध्ययन और उपचार के विषय हैं। यदि रोगमुक्त होने के पश्चात वह व्यक्ति अर्थसंकट के कारण कुटुंबपालन में असमर्थ रहा, तो वह पुन: रोगग्रस्त हो सकता है। रोगकाल में उसके कुटुंब की आर्थिक समस्या कैसे हल हो, इसका प्रबंध समाजसेवी का कर्तव्य है। इस प्रकार की प्रत्येक समस्या समाजसेवी को हल करनी पड़ती है। इससे समाजसेवी का चिकित्सा में महत्व समझा जा सकता है। उग्र रोग की अवस्था में उपचारक या उपचारिका की जितनी आवश्यकता है, रोगमुक्ति के पश्चात् उस व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा तथा जीवन को उपयोगी बनाने में समाजसेवी की भी उतनी ही आश्यकता है।
 
आयुर्वैज्ञानिक शिक्षासंस्थाओं में अस्पताल-आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा संस्थाओं (मेडिकल कालेजों) में चिकित्सालयों का मुख्य प्रयोजन विद्यार्थियों की चिकित्सा-संबंधी शिक्षा तथा अन्वेषण है। इस कारण ऐसे चिकित्सालयों के निर्माण के सिद्धांत कुछ भिन्न होते हैं। इनमें प्रत्येक विषय की शिक्षा के लिए भिन्न-भिन्न विभाग होते हैं। इनमें विद्यार्थियों की संख्या के अनुसार रोगियों को रखने के लिए समुचित स्थान रखना पड़ता है, जिसमें आवश्यक शय्याएँ रखी जा सकें। साथ ही शय्याओं के बीच इतना स्थान छोड़ना पड़ता है कि शिक्षक और उसके विद्यार्थी रोगी के पास खड़े होकर उसकी पर्रीक्षा कर सकें तथा शिक्षक रोगी के लक्षणों का प्रदर्शन और विवेचन कर सके। इस कारण ऐसे अस्पतालों के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता होती हैं। फिर, प्रत्येक विभाग को पूर्णतया आधुनिक यंत्रों, उपकरणों आदि से सुसज्जित करना होता है। वे शिक्षा के लिए आवश्यक हैं। अतएव ऐसे चिकित्सालयों के निर्माण और सगंठन में साधारण अस्पतालों की अपेक्षा बहुत अधिक व्यय होता है। शिक्षकों ओर कर्मचारियों की नियुक्ति भी केवल श्रेष्ठतम विद्वानों में से, जो अपने विषय के मान्य व्यक्ति हों, की जाती है। अतएव ऐसे चिकित्सालय चलाने का नित्यप्रति का व्यय अधिक होना स्वाभाविक ऐसी संस्थाओं के निर्माण , सज्जा तथा कर्मचारियों का पूरा ब्योरा इंडियन मेडिकल काउंसिल ने तैयार कर दिया है। यही काउंसिल देश भर की शिक्षासंस्थाओं का नियंत्रण करती है। जो संस्था उसके द्वारा निर्धारित मापदंड तक नहीं पहुँचती उसको काउंसिल मान्यता प्रदान नहीं करती और वहाँ के विद्यार्थियों को उच्च परीक्षाओं में बैठने के अधिकार से वंचित रहना पड़ता है। शिक्षा के स्तर को उच्चतम बनाने में इस काउंसिल ने स्तुत्य काम किया है।
 
ऐसे अस्पतालों में विशेष प्रश्न पर्याप्त स्थान का होता है। कमरों का आकार और संख्या दोनों को ही अधिक रखना पड़ता है। फिर, प्रत्येक विभाग की आवश्यकता, विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या आदि का ध्यान रखकर चिकित्सालय की योजना तैयार करनी पड़ती है। (चं.भा.सिं.)