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'''दायभाग''' [[जीमूतवाहन]]कृत एक प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ है जिसके मत का प्रचार बंगाल में है ।है। 'दायभाग' शाब्दिक अर्थ है, '''पैतृक धन का विभाग''' अर्थात् बाप दादे या संबंधी की संपत्ति के पुत्रों, पौत्रों या संबंधियों में बाँटे जाने की व्यवस्था ।व्यवस्था। बपौती या वरासत की मिलाकियत को वारिसों या हकदारों में बाँटने का कायदा कानून ।कानून।
 
== परिचय ==
दायभाग हिन्दू धर्मशास्त्र के प्रधान विषयों में से है ।है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसके संबंध में विस्तृत व्यवस्था है ।है। ग्रंथकारों और टीकाकारों के मतभेद से पैतृक धनविभाग के संबंध में भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं ।हैं। प्रधान पक्ष दो हैं - [[मिताक्षरा]] और दायभाग ।दायभाग। मिताक्षरा [[याज्ञवल्क्य स्मृति]] पर विज्ञानेश्वर की टीका है जिसके अनुकूल व्यवस्था पंजाब, काशी, मिथिला आदि से लेकर दक्षिण कन्याकुमारी तक प्रचलति है ।है। 'दायभाग' जीमूतवाहन का एक ग्रंथ है जिसका प्रचार वंग देश में है ।है।
 
सबसे पहली बात विचार करने की यह है कि कुटुंबसंपत्ति में किसी प्राणी का पृथक् स्वत्व विभाग करने के पीछे होता है अथवा पहले से रहता है ।है। मिताक्षरा के अनुसार विभाग होने पर ही पृथक् या एकदेशीय स्वत्व होता है, विभाग के पहले सारी कुटुंबसंपत्ति पर प्रत्येक संमिलित प्राणी का सामान्य स्वत्व रहता है ।है। दायभाग विभाग के पहले भी अव्यक्त रूप में पृथक् स्वत्व मानता है जो विभाग होने पर व्यंजित होता है ।है। मिताक्षरा पूर्वजों की संपत्ति में पिता और पुत्र का समानाधिकार मानती है अतः पुत्र पिता के जीते हुए भी जब चाहे पैतृक संपत्ति में हिस्सा बँटा सकते हैं और पिता पुत्रों की सम्मति के बिना पैतृक संपत्ति के किसी अंश का दान, विक्रय आदि नहीं कर सकता ।सकता। पिता के मरने पर पुत्र जो पैतृक संपत्ति का अधिकारी होता है वह हिस्सेदार के रूप में हाता है, उत्तराधिकारी के रूप में नहीं ।नहीं। मिताक्षरा पुत्र का उत्तराधिकार केवल पिता की निज की पैदा की हुई संपत्ति में मानती है ।है। दायभाग पूर्वपस्वामी के स्वत्वविनाश (मृत, पतित या संन्यासी होने के कारण) के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है ।है। उसके अनुसार जब तक पिता जीवित है तब तक पैतृक संपत्ति पर उसका पूर अधिकार है; वह उसे जो चाहे सो कर सकता है ।है। पुत्रों के स्वत्व की उत्पत्ति पिता के मरने आदि पर ही होती है ।है। यद्यपि याज्ञवल्क्य के इस श्लोक में ''भूर्या पितामहोपात्त निबंधी द्रव्यमेव वा ।वा। तत्र स्यात् सदृशं स्वाम्यं पितुः पुत्रस्य चोभचोः'' पिता पुत्र का समान अधिकार स्पष्ट कहा गया है तथापि जीमूतवाहनने इस श्लोक से खींच तानकर यह भाव निकाला है कि पुत्रों के स्वत्व की उत्पत्ति उनके जन्मकाल से नहीं, वल्कि पिता के मृत्युकाल से होती है ।है।
 
== उत्तराधिकारी क्रम ==
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| २७ || सहपाठी या गुरुरमाई || मामा
|-
| २८ || राजा (यदि संपत्ति ब्राह्मण की न हो ।हो। ब्राह्मण की हो तो उसकी जाती में जाय।) || मामा का लड़का
|}
 
इत्यादि, इत्यादि ।इत्यादि।
 
उपर जो क्रम दिया गया है उसे देखने से पता लगेगा कि मिताक्षरा माता का स्वत्व पहले करती है और दायभाग पिता का ।का। याज्ञवल्क्य का श्लोक है:
: पत्नी दुहितरश्यौव पितरौ भ्रातरस्तथा ।भ्रातरस्तथा। तत्सुता गोत्रजा बंधुः शिष्यः सब्रह्मचारिणः । ।सब्रह्मचारिणः।।
 
इस श्लोक के 'पितरौ' शब्द को लेकर मिताक्षरा कहती है कि 'माता पिती' इस समास में माता शब्द पहले आता है और माता का संबंध भी अधिक घनिष्ठ है, इससे माता का स्वत्व पहले है ।है। जीमूतवाहन कहता है कि 'पितरौ' शब्द ही पिता की प्रधानता का बोधक है इससे पहले पिता का स्वत्व है ।है। [[मिथिला]], [[काशी]] और [[महाराष्ट्र]] प्रांत में माता का स्वत्व पहले और [[बंगाल]], [[तमिलनाडु]] तथा [[गुजरात]] में पिता का स्वत्व पहले माना जाता है ।है। मिताक्षरा दायाधिकार में केवल संबंध निमित्त मानती है और दायभाग पिंडोदक क्रिया ।क्रिया। मिताक्षरा 'पिंड' शब्द का अर्थ शरीर करके सपिंड से सात पीढ़ियों के भीतर एक ही कुल का प्राणी ग्रहण करती है, पर दायभाग इसका एक ही पिंड से संबद्ध अर्थ करके नाती, नाना, मामा इत्यादि को भी ले लेता है ।है।
 
== मिताक्षरा और दायभाग के बीच मुख्य अन्तर ==
मिताक्षरा और दायभाग के बीच मुख्य मुख्य बातों का भेद नीचे दिखाया जाता हैः
 
'''(१)''' मिताक्षरा के अनुसार पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के स्वत्वविनाश के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है ।है।
 
'''(२)''' मिताक्षरा के अनुसार विभाग (बाँट) के पहले प्रत्येक सम्मिलित प्राणी (पिता, पुत्र, भ्राता इत्यादि) का सामान्य स्वत्व सारी संपत्ति पर होता है, चाहे वह अंश बाँट न होने के कारण अव्यक्त या अनिश्चित हो ।हो।
 
'''(३)''' मिताक्षरा के अनुसार कोई हिस्सेदार कुटुंब संपत्ति को अपने निज के काम के लिये बै या रेहन नहीं कर सकता पर दायभाग के अनुसार वह अपने अनिश्चित अंश को बँटवारे के पहले भी बेच सकता है ।है।
 
'''(४)''' मिताक्षरा के अनुसार जो धन कई प्राणियों का सामान्य धन हो, उसके किसी देश या अंश में किसी एक स्वामी के पृथक् स्वत्व का स्थापन विभाग (बटवारा) है ।है। दायभाग के अनुसार विभाग पृथक् स्वत्व का व्यंजन मात्र है ।है।
 
'''(५)''' मिताक्षरा के अनुसार पुत्र पिता से पैतृक संपत्ति को बाँट देने के लिये कह सकता है, पर दायभगा के अनुसार पुत्र को ऐसा अधिकार नहीं है ।है।
 
'''(६)''' मिताक्षरा के अनुसार स्त्री अपने मृत पति की उत्तराधिकारिणी तभी हो सकती है जब उसका पति भाई आदि कुटुंबियों से अलग हो ।हो। पर दायभाग में, चाहे पति अलग हो या शामिल, स्त्री उत्तराधिकारिणी होती है ।है।
 
'''(७)''' दायभाग के अनुसार कन्या यदि विधवा, वंध्या या अपुत्रवती हो तो वह उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती ।सकती। मिताक्षरा में ऐसा प्रतिबंध नहीं है ।याज्ञवल्क्यहै।याज्ञवल्क्य, नारद आदि के अनुसार पैतृक धन का विभाग इन अवसरों पर होना चाहिए— पिता जब चाहे तब, माता की रजोनिवृत्ति और पिता की विषयनिवृति होने पर, पिता के मृत, पतित या संन्यासी होने पर ।पर।
 
== इन्हें भी देखें ==