"द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति": अवतरणों में अंतर
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द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति का प्रारंभिक रूप [[ग्रीस]] में विकसित हुआ। [[अरस्तू]] के अनुसार [[इलिया के जेनों]] (Zeno of Elia) इस पद्धति के आविष्कर्ता थे। सामान्य अर्थों में [[वादविवाद]] की कला को द्वंद्वात्मक पद्धति कहा गया है।
इसको अत्यंत सुलझा हुआ एवं स्पष्ट रूप [[सुकरात]] (साक्रेटीज) ने
अरस्तू ने इसे अधिक तार्किक रूप देने का प्रयास किया। उनके अनुसार इस तर्क की पद्धति साधारण लोकमतसम्मत मान्यताओं से प्रारंभ होती
कांट की इस अंतर्दृष्टि का लाभ [[हेगेल]] ने उठाया। वास्तव में हेगेल ही द्वंद्वात्मक तर्क के आधुनिक व्याख्याता हैं। उनके अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क मूलत: मननात्मक विचारों की विशिष्ट प्रकृति है। ये विचार प्रणाली या सामान्य के स्वभाव को व्यक्त करते हैं। इसकी गति में तीन क्षण आते हैं, क्रम से जिन्हें वार, प्रतिवाद और संवाद कहा गया है। इस प्रकार द्वंद्वात्मक तर्क की प्रवृत्ति समन्वय की ओर उन्मुख होती है। समन्वय या संवाद, वाद एवं प्रतिवाद की उच्चतर एकता है, यद्यपि यह दोनों से भिन्न होता है, फिर भी दोनों उसमें उन्नत रूप में प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि द्वंद्वात्मक तर्क विचारों की गति से संबंधित है। हेगेल के अनुसार परम सत्य या निरपेक्ष सत्य स्वयं को इसी रूप में व्यक्त करता
[[कार्ल मार्क्स]] ने इसलिए कहा था कि हेगेल ने द्वंद्वात्मक तर्क को सिर के बल खड़ा किया है। उसे पैर के बल खड़ा करने का श्रेय मार्क्स एवं [[एंगेल्स]] को है। यहाँ द्वंद्वात्मक तर्क का बिलकुल नया अर्थ प्रदान किया गया है। इस स्थल पर इसे भौतिकवादी द्वंद्वात्मक तर्क कहना अधिक उपयुक्त होगा। यह माना गया कि प्रकृति, भौतिक जगत् और इतिहास ही द्वंद्वात्मक तर्क के वास्तविक निकष हैं। प्रकृति की गति स्वयं द्वंद्वात्मक मानी गई। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार परिवर्तन ही परम सत्य है। उसके लिए देश काल से पर किसी भी अमर सत्ता का महत्व नहीं है। उत्पत्ति, विकास और विनाश, ये ही विश्व की विशेषताएँ हैं। द्वंद्वात्मक दर्शन स्वयं मन की चिंतन प्रक्रिया का प्रतिफलन है। मार्क्स के अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क गति के समान्य नियमों का विज्ञान है। चाहे यह गति बाह्य जगत् की हो, चाहे आंतरिक मन की गति हो, इन दोनों गतियों का उसमें अध्ययन होता है। मार्क्स के अनुसार द्वंद्वात्मक तर्क की विषयवस्तु ज्ञानमीमांसा अध्ययन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। इतिहास का विकास वर्गसंघर्ष के माध्यम से हुआ है। जिसके प्रतिफलन स्वरूप दुर्घटनाएँ एवं विद्रोह हुए हैं। निरंतरता में इस प्रकार अवरोध उत्पन्न होता है। विकास में अतीत अवस्थाओं की पुनरावृत्ति भिन्न प्रकार की होती है, जिसे "निषेध का निषेध" कहा गया है। इसी पृष्ठभूमि में मार्क्स, एंगेल्स एवं लेनिन ने प्रकृति, इतिहास, वर्गसंघर्ष, ज्ञानमीमांसा इत्यादि की व्याख्या की है जिसे व्यापक अर्थों में [[द्वंद्वात्मक भौतिकवाद]] या [[ऐतिहासिक भौतिकवाद]] कहा गया है।
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