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प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिंतन, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ब्राहृचर्य और शिक्षणपद्धति के उल्लेख पाए जाते हैं, जिनसे पता लगता है कि शिक्षणव्यवस्था का संगठन आरंभ हो गया था और मानव अभिव्यक्तियों ने शास्त्रीय रूप धारण करना शुरू कर दिया था। ऋग्वेद में कवि को ऋषि (मंत्रद्रष्टा) माना गया है। वह अपनी अंतदृष्टि से संपूर्ण विश्व का दर्शन करता था। उषा, सवितृ, अरण्यानी आदि के सूक्तों में प्रकृतिनिरीक्षण और मानव की सौंदर्यप्रियता तथा रसानुभूति का सुंदर चित्रण है। ऋग्वेदसंहिता में पुर और ग्राम आदि के उल्लेख भी पाए जाते हैं। लोहे के नगर, पत्थर की सैकड़ों पुरियां, सहरुद्वार तथा सहरुस्तंभ अट्टालिकाएं निर्मित होती थीं। साथ ही सामान्य गृह और कुटीर भी बनते थे। भवननिर्माण में इष्टका (ईंट) का उपयोग होता था। यातायात के लिए पथों का निर्माण और यान के रूप में कई प्रकार के रथों का उपयोग किया जाता था। गीत, नृत्य और वादित्र का संगीत के रूप में प्रयोग होता था। वाण, क्षोणी, कर्करि प्रभृति वाद्यों के नाम पाए जाते हैं। पुत्रिका (पुत्तलिका, पुतली) के नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। अलंकरण की प्रथा विकसित थी। स्त्रियां निष्क, अज्जि, बासी, वक्, रुक्म आदि गहने पहनती थीं। विविध प्रकार के मनोविनोद में काव्य, संगीत, द्यूत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि सम्मिलित थे।
 
=== धर्म ===
 
== श्रेष्ठ, शिष्ट अथवा संज्जन ==
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