"सहज वृत्ति (इंस्टिंक्ट)": अवतरणों में अंतर

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'''सहज वृत्ति''' , किसी [[व्यवहार प्रक्रिया|व्यवहार]] विशेष की तरफ [[सजीव|[[जीवों]]]] के स्वाभाविक झुकाव को कहते हैं. गतिविधियों के स्थायी पैटर्न भुलाये जाते हैं और वंशानुगत होते हैं. किसी संवेदनशील समय में पड़ी छाप के कारण इसके उत्प्रेरक काफी विविध प्रकार के हो सकते हैं, या आनुवंशिक रूप से निर्धारित भी हो सकते हैं. सहज वृत्ति वाली गतिविधियों के स्थायी पैटर्न को पशुओं के व्यवहार में देखा जा सकता है, जो ऐसी कई गतिविधियों (अक्सर काफी जटिल) में संलग्न रहते हैं जो पूर्व अनुभवों पर आधारित नहीं होती हैं, जैसे कि [[कीट|कीड़ों]] के बीच [[प्रजनन]] तथा भोजन संबंधी गतिविधियां. समुद्र तट पर प्रजनित समुद्री कछुए स्वतः ही समुद्र की ओर चलने लगते हैं, और मधुमक्खियां नृत्य द्वारा खाद्य स्रोत की दिशा के बारे में बताती हैं; ये किसी औपचारिक शिक्षा के बिना ही होते हैं. अन्य उदाहरणों में जानवरों की लड़ाई, जानवरों का प्रेमालाप संबंधी व्यवहार, बचने के आतंरिक तरीके, और [[घोसला|घोसलों]] का निर्माण शामिल हैं.
इसी अवधारणा के लिए एक और शब्द है 'सहज व्यवहार'.
 
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अन्य समाजशास्त्रियों का तर्क है कि मनुष्य में कोई सहज वृत्ति नहीं होती है; वे उसे इस रूप में परिभाषित करते हैं, "एक प्रजाति विशेष के प्रत्येक सदस्य में मौजूद रहने वाले जटिल व्यवहार, जो सहज होते हैं और जिनपर काबू नहीं पाया जा सकता है." ऐसे समाजशास्त्रियों का तर्क है कि सेक्स और भूख जैसी प्रवृत्तियों को सहज वृत्ति नहीं माना जा सकता क्योंकि उनपर काबू पाया जा सकता है. यह पारिभाषिक तर्क जीव विज्ञान और समाजशास्त्र की कई परिचयात्मक पाठ्यपुस्तकों में मौजूद है,<ref>''समाजशास्त्र: एक परिचय'' - रॉबर्टसन, इयान; वॉर्थ प्रकाशक, 1989</ref> लेकिन अभी भी इसपर गरमा-गरम बहस जारी है.<br />मनोविज्ञानी इब्राहीम मास्लो का तर्क है कि मनुष्यों में अब कोई भी ''सहज वृत्ति'' मौजूद नहीं रह गयी है क्योंकि हमारे पास कुछ परिस्थितियों में उनपर काबू पाने की क्षमता मौजूद है. उनका मानना है कि जिसे हम सहज वृत्ति कहते हैं उसे अक्सर सटीक तरीके से परिभाषित नहीं किया जाता, और वास्तव में वह अति सशक्त ''इच्छा'' के सिवा और कुछ नहीं है. मास्लो के लिए, सहज वृत्ति वह है जिसपर काबू न पाया जा सके, और इसलिए अतीत में संभवतः यह मनुष्यों पर लागू होती रही होगी लेकिन आज ऐसा नहीं है.<ref>एब्राहम एच. मासलो, ''प्रेरणा और व्यक्तित्व'' अध्याय 4, इंस्टिग्ट थ्योरी रिएक्ज़माइंड</ref>
 
अपनी पुस्तक 'एन इंस्टिंक्ट फॉर ड्रेगंस<ref>डेविड ई. जोन्स, ''[http://books.google.com/books?id=P1uBUZupE9gC&amp;printsec=frontcover&amp;hl=sv&amp;source=gbs_v2_summary_r&amp;cad=0#v=onepage&amp;q=&amp;f=false एन इंस्टिंक्ट फॉर ड्रैगन]'' , न्यूयॉर्क: रूटलेज 2000, ISBN 0-415-92721-8</ref>' में मानव विज्ञानी डेविड ई. जोन्स यह परिकल्पना पेश करते हैं कि वानरों के समान ही मनुष्यों ने भी सांपों, बड़ी बिल्लियों तथा शिकारी पक्षियों के प्रति सहज प्रतिक्रियाओं को अपने पूर्वजों से प्राप्त किया है. लोकगीतों में पाए जाने वाले ड्रैगन में इन तीनों के गुण होते हैं, जो इस बात का उत्तर पेश करता है कि समान गुणों वाले ड्रैगन सभी महाद्वीपों की स्वतंत्र संस्कृतियों की कहानियों में क्यों दिखाई देते हैं. अन्य लेखकों का सुझाव है कि नशीली दवाओं के प्रभाव या स्वप्न में यह सहज वृत्ति ड्रैगन, सांपों, मकड़ियों से संबंधित कल्पनाओं को उत्पन्न कर सकती है; इसी कारणवश ये प्रतीक नशीली दवाओं की संस्कृति में काफी प्रचलित हैं. हालांकि, लोकगीतों में ड्रैगन की मौजूदगी की पारंपरिक मुख्यधारा व्याख्या मानव सहज वृत्ति की बजाय इस धारणा पर निर्भर करती है कि डायनासोर के जीवाश्म अवशेषों ने पूरी दुनिया में समान अटकलों को जन्म दिया था.
 
== इन्हें भी देखें ==