"जन्मपत्री": अवतरणों में अंतर

छो पूर्णविराम (।) से पूर्व के खाली स्थान को हटाया।
छो बॉट: अंगराग परिवर्तन
पंक्ति 29:
हमारी जन्मकुंडली की दशा अंतर्दशाओं के क्रम से प्रभावित होकर अरब देशवासियों ने वर्षफल की एक नई प्रणाली प्रारंभ की जिसे '[[ताजिक]]' कहते हैं। इसमें प्राणी के जन्म काल से सौर वर्ष की पूर्ति के समय का लग्न लाकर एक वर्ष के अंदर होनेवाले शुभाशुभों का विचार किया जाता है। इसमें 16 योगों की प्रधानता है जिनमें लाभ, हानि तथा शारीरिक स्थिति का विचार किया जाता है। इन 16 योगों के नाम [[अरबी भाषा]] के ही हैं [[संस्कृत]] ग्रंथों में उनके नाम उच्चारण के अनुसार कुछ परिवर्तित हो गए है यथा, इक़बाल (इक्कबाल) अशराफ (इसराफ़), इत्तसाल (इत्त्थसाल) आदि।
 
== जन्मपत्री का इतिहास ==
वर्तमान समय में राशिचक्र के बारह भाग कर जन्मकुंडली के फलादेश की जो प्रणाली प्रचलित है इसका उल्लेख भार के प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं है। किन्तु [[अथर्व ज्योतिष]] में बहुत पहले से ही इस पद्धति के मूल तत्व निहित हैं। इसमें राशिचक्र के २७ नक्षत्रों के नौ भाग करके तीन-तीन नक्षत्रों का एक-एक भाग माना गया है। इनमें प्रथम 'जन्म नक्षत्र', दसवाँ 'कर्म नक्षत्र' तथा उन्नीसवाँ 'आधान नक्षत्र' माना गया है। शेष को क्रम से संपत्, विपत्, क्षेम्य, प्रत्वर, साधक, नैधन, मैत्र, और परम मैत्र माना गया है, जैसे-
: १ से ९ -- जन्म नक्षत्र
पंक्ति 48:
अथर्व ज्योतिष में दसवाँ कर्म नक्षत्र है। आधुनिक पद्धति में भी दशम स्थान कर्म है। इससे सिद्ध है कि अथर्व ज्योतिष में नौ स्थान वर्तमान कुंडली के बारह स्थानों के किसी न किसी स्थान में अंतर्भुक्त हो जाते हैं जो मेष आदि संज्ञाओं के प्रचार में अने के पहले ही से हमारी फलादेश पद्धति में विद्यमान थे। पूर्व क्षितिज में लगनेवाले नक्षत्रों को लग्न नक्षत्र मानने का वर्णन ३३०० वर्ष प्राचीन [[वेदांग ज्योतिष]] में भी है। जैसे,- ''श्रविष्ठाभ्यो गुणाभ्यस्तान् प्राग्विलग्नान् विनिर्दिशेनद''। अर्थात् गुण (तीन) तीन की गणना कर घनिष्ठा से पूर्व क्षितिज में लगे नक्षत्रों को बताना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय २७ नक्षत्रों में तीन तीन भाग करके नक्षत्र चक्र के नव भाग किए गए थे। अथर्व ज्योतिष के नव विभागों का सामंजस्य इससे हो जाता है।
 
=== बारह राशियों का प्रचार काल ===
यूरोपीय विद्वानों का मत है कि नक्षत्र चक्र के बारह भाग या बारह राशियाँ भारत में बाहर से आई। किंतु हमारे वैदिक साहित्य में सूर्य की गति के आधार पर नक्षत्र चक्र के बारह भाग और [[चंद्रमा]] की दैनिक गति के आधार पर २७ भाग पहले से किए गए हैं। यद्यपि हमारे [[पुराण|पुराणों]] में जिस प्रकार नक्षत्रों और चंद्रमा से संबंधित कथाएँ हैं, उसी प्रकर मेषादि राशियों की कथाएँ नहीं हैं किंतु ग्रीक साहित्य में हैं। फिर भी इतने से ही सिद्ध नहीं होता कि राशिगणना और भाव भारत में बाहर से आए। यूरोपीय विद्वानों की ही उक्तियाँ इसके विपरीत साक्ष्य दे रही हैं। [[जैकोबी]] का कथन है कि जन्मकुंडली में द्वादश गृहों से फल बताने की पद्धति [[फारमीकस मैटरनस]] (३३६ ई. - ३५४ ई.) के ग्रंथ में मिलती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि [[टॉलेमी|टोलेमी]] से पहले [[ग्रीस]] में भी किसी जातक ग्रंथ का पता नहीं लगता। टोलेमी के दो जातक ग्रंथ अल्मिजास्ती (आल्मजेस्ट) और टाइट्राबिब्लास कहे जाते हैं किंतु यह प्रमाणित नहीं है। यदि ३५४ ई. के बाद फारमीकस मैटरनस् के ग्रंथ का प्रचार [[भारत]] में हुआ सत्य मान लिया जाय तो [[वराहमिहिर]] (५५० ई.) के पूर्व २५० वर्षों में ६ आर्य ग्रंथकार और पाँच आर्ष ग्रंथकारों का होना संभव नहीं प्रतीत होता। वराहमिहिर ने अपने पूर्ववर्ती मय यवन, मणित्त्थ, सत्य, विष्णुगुप्त आदि आचार्यों का नाम लिया है। [[बृहज्जातक]] के टीकाकार [[भट्टोत्पल]] का मत है कि ये विष्णुगुप्त चंद्रमा के मंत्री अचार्य [[चाणक्य]] हैं। इस प्रकार यह हमारी राशिगणना पद्धति ईसवी सन् से ३०० वर्ष पूर्व की सिद्ध होती है। इससे यह कथन तथ्यपूर्ण नहीं है कि राशिगणना भारत में बाहर से आई।
 
पंक्ति 61:
इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हमारा सारा का सारा जातकशास्त्र उधार लिया गया है। भारतीय जन्मकुंडली की पद्धति जानकर यूनानियों ने उसका विस्तार अवश्य किया और नवीन रूप में उसे [[वराहमिहिर]] के समय में भारतीयों के सम्मुख प्रस्तुत किया। फलत: वराहमिहिर ने उनकी होरा, द्रेष्काण आदि नवीन पद्धतियों के साथ राशियों के नाम भी यूनानी ही रख लिए, जैसे आज हमारा [[बीजगणित]] अरबों द्वारा [[यूरोप]] में फैलाया जाकर अपने बहद् रूप में पुन: भारत लौटकर नवीन गणित (अलजब्रा) के नाम से विख्यात हुआ है।
 
== द्वादश भाव ==
जिस तरह आकाश मण्डल में बारह राशियां हैं, वैसे ही वर्तमान समय में कुंडली में बारह भाव (द्वादश भाव) होते हैं। जन्म कुंडली या जन्मांग चक्र में किसी के जन्म समय में आकाश की उस जन्म स्थान पर क्या स्थिति थी, इसका आकाशी नक्श है। बारह खानों का चार्ट जन्मांग में बनाया जाता है। हिन्दू ज्योतिष इनको " भाव " कहते हैं। अंग्रेजी में 'हाऊस` और फारसी में 'खाना` कहते हैं। ये कई शैलियों में बनाये जाते हैं। उत्तर एवं दक्षिण भारत में प्रयोग में लाये जाने वाले जन्मकुण्डली चित्र-
 
पंक्ति 96:
'''द्वादश भाव''' : यह व्यय भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- अंतिम, आपोक्लिम, एवं द्वादश।इस भाव से धन व्यय, बायीं आंख, शैया सुख, मानसिक क्लेश, दैवी आपत्तियां, दुर्घटना, मृत्यु के उपरान्त की स्थिति, पत्नी के रोग, माता का भाग्य, राजकीय संकट, राजकीय दंड, आत्म-हत्या, एवं मोक्ष आदि का विचार किया जाता है।
 
== इन्हें भी देखें==
* [[नक्षत्र]]
* [[राशि]]
* [[फलित ज्योतिष]]
 
== बाहरी कड़ियाँ==