"मूत्ररोग विज्ञान": अवतरणों में अंतर
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== मूत्ररोग के निदान ==
लगभग प्रत्येक रोग के निदान के लिये तीन बातों की आवश्यकता पड़ती है : रोग इतिहास (history) परीक्षा तथा जाँच (investigations)
(क) '''लाक्षणिक (clinical) इतिहास'''-बच्चों के रोगनिदान में माता पिता से और बड़ों के रोगनिदान में स्वयं उन्हीं से चार भागों में पूरा इतिहास लेना चाहिए :
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(२) गुलिकार्तीय (tuberculous) तथा
(३) असामान्य (unusual)
मूत्रतंत्र के अगुलिकार्तीय संक्रमण प्रत्येक आयु में हो सकते हैं, पर दो वर्ष के पहले तथा ४० वर्ष के पश्चात् सबसे अधिक होते हैं। ग्राम-ऋणी दंडाणु (gram-negative-bacilli) एशरिकिया कोलाई (escherichia coli), 50%-75% रोगियों में पाए जाते हैं। स्यूडोमोनैस एरोजेनीज, प्रोटियस, शिगेल्सा, सालमोनेल्ला गुच्छ गोलाणु (staphylococcus), मनका गोलाणु (streptococcus) इत्यादि भी मूत्र के संक्रमण उत्पन्न करते हैं। ये संक्रमण रुधिरजन्य (haematogenous) मूत्रजन्य (urogenous), लसीकाजन्य (lymphogenous), सीधे अथवा विस्तरण (extension) से होश् सकते हैं। वृक्क में तरुण (acute) अथवा जीर्ण (chronic) संक्रमण हो सकते हैं। पाइओन्फ्रेसिस (pyonephrosis) में पूरा वृक्क पूय की थैली बन जाता है। वृक्क तथा परिवृक्क फोड़े वृक्क संक्रमण के और भी उदाहरण हैं। मूत्रवाहिनी में पाइओयूरेटर (pyoureter) हो सकता है। मूत्राशयश् में युरेथराइटिस (urethritis) हो सकता है।
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