"मेंहदीपुर बालाजी": अवतरणों में अंतर

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यहॉ तीन देवों की प्रधानता है- श्री बालाजी महाराज, श्री प्रेतराज सरकार और श्री कोतवाल (भैरव)। यह तीन देव यहॉ आज से लगभग १००० वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। इनके प्रकट होने से लेकर अब तक बारह महंत इस स्थान पर सेवा-पूजा कर चुके हैं और अब तक इस स्थान के दो महंत इस समय भी विद्यमान हैं। सर्व श्री गणेच्चपुरी जी महाराज (भूतपूर्व सेवक) श्री किच्चोरपुरीजी महाराज (वर्तमान सेवक)। यहॉ के उत्थान का युग श्री गणेच्चपुरी जी महाराज के समय से प्रारंभ हुआ और अब दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रधान मंदिर का निर्माण इन्हीं के समय में हुआ। सभी धर्मशालाए इन्हीं के समय में बनीं। इस प्रकार इनका सेवाकाल श्री बालाजी घाटा मेंहदीपुर के इतिहास का स्वर्ण युग कहलाएगा।
 
प्रारंभ में यहॉ घोर बीहड जंगल था। घनी झाडि यों में द्रोर-चीते, बघेरा आदि जंगली जानवर पड़े रहते थे। चोर-डाकुओं का भी भय था। श्री महंतजी महाराज के पूर्वजों को जिनका नाम अज्ञात है, स्वप्न हुआ और स्वप्न की अवस्था में ही वे उठ कर चल दिए। उन्हें पता नहीं था कि वे कहॉ जा रहे हैं और इसी आवस्था में उन्होंने एक बड़ी विचित्र लीला देखी। एक ओर से हजारों दीपक चलते आ रहे हैं। हाथी-घोड़ो की आवाजें आ रही हैं और एक बहुत बड़ी फौज चली आ रही हे। उस फौज ने श्री बालाजी महाराज की मूर्ति की तीन प्रदक्षिणाएं कीं और फौज के प्रधान ने नीचे उतर कर श्री महाराज की मूर्ति को शास्तांग प्रणाम किया तथा जिस रास्ते से वे आये थे उसी रास्ते से चले गये। गोसॉई जी महाराज चकित होकर यह सब देख रहे थे। उन्हें कुछ डर सा लगा और वे वापिस अपने गॉव चले गए किन्तु नींद नहीं आई और बार-बार उसी पर विचार करते हुए उनकी जैसे ही ऑखें लगी उन्हें स्वप्न में तीन मूर्तियॉ, उनके मन्दिर और विशाल वैभव दिखाई पड़ा और उनके कानों में यह आवाज आई - ''उठो, मेरी सेवा का भार ग्रहण करों। मैं अपनी लीलाओं का विस्तार करूँगा ।करूँगा।'' यह बात कौन कह रहाथा, कोई दिखाई नहीं पड़ा। गोसॉई जी ने एक बार भी इस पर ध्यान नहीं दिया। अन्त में श्री हनुमान जी महाराज ने इस बार स्वयं उन्हें दर्शन दिए और पूजा का आग्रह किया।
 
दूसरे दिन गोसॉई जी महाराज उस मूर्ति के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चारों ओर से घंटा-घडि याल की आवाज आ रही है किन्तु दिखाई कुछ नहीं दिया। इसके बाद श्री गोसॉई जी ने आस-पास के लोग इकटठे किए और सारी बातें उन्हें बताई। उन लोगों ने मिल कर श्रीमहाराज की एक छोटी सी तिवारी बना दी और यदा-कदा भोग प्रसाद की व्यवस्था कर दी। कई एक चमत्कार भी श्री महाराज ने दिखाए किंतु यह बढ ती हुई कला कुछ विधर्मियों के शासन-काल में फिर से लुप्त हो गई। किसी ने श्री महाराज की मूर्ति को खोदने का प्रयत्न किया। सैकदो हाथ खोद लेने पर भी जब मूर्ति के चरणों का अन्त नहीं आया तो वह हार-मानकर चला गया। वास्तव में इस मूर्ति को अलग से किसी कलाकार ने गढ कर नहीं बनाया है अपितु यह तो पर्वत का ही अंग है और यह समूचा पर्वत ही मानों उसका 'कनक भूधराकार' द्रारीर है। इसी मूर्ति के चरणों में एक छोटी सी कुण्डी थी जिसका जल कभी बीतता ही नहीं था। रहस्य यह है कि महाराज की बाईं ओर छाती के नीचे से एक बारीक जलधारा निरन्तर बहती रहती है जो पर्याप्त चोला चढ जाने पर भी बंद नहीं होती।