"विद्युत": अवतरणों में अंतर

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''''[[चित्र:Lightning3.jpg|right|thumb|वायुमण्डलीय विद्युत]]
 
विद्युत आवेशों के मौजूदगी और बहाव से जुड़े भौतिक परिघटनाओं के समुच्चय को '''विद्युत''' (Electricity) कहा जाता है ।है। विद्युत से अनेक जानी-मानी घटनाएं जुड़ी है जैसे कि [[तडित]], [[स्थैतिक विद्युत]], [[विद्युतचुम्बकीय प्रेरण]], तथा [[विद्युत धारा]] । इसके अतिरिक्त, विद्युत के द्वारा ही [[विद्युतचुम्बकीय तरंग|वैद्युतचुम्बकीय तरंगो]] (जैसे [[रेडियो तरंग]]) का सृजन एवं प्राप्ति सम्भव होता है।
 
विद्युत के साथ [[चुम्बक]]त्व जुड़ी हुई घटना है ।है। विद्युत आवेश [[विद्युत क्षेत्र|वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र]] पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है।
 
 
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वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत् दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे। सन् १७३७ में डूफे (Du Fay, १६९९-१७३९) ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं। १७४५ में क्लाइस्ट (Kleist) ने क्यूमिन (Kummin) में, मसेनब्रूक (Musschen brock) ने लाइडेन (Leyden) में, तथा विलियम वाटसन (William Watson) ने [[लंदन]] में कहा कि विद्युत् का संचय भी किया जा सकता है, इनके प्रयोगों तथा विचारों ने प्रसिद्ध संचायक लीडेन जार (Leydenjar) को जन्म दिया। लगभग इसी समय विद्युत् को पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करने के प्रयत्न भी जारी थे तथा विभिन्न प्रकार के विद्युत यंत्रों का आविष्कार हुआ। विलिय वटसन का विचार था कि विद्युत् एक प्रकार का प्रत्यास्थ तरल (Elastic fluid) होती है जो प्रत्येक वस्तु में विद्यमान होती है। आवेशविहीन वस्तुओं में यह साधारण मात्रा में होती है अत: इसका निरीक्षण नहीं किया जा सकता। वाटसन के तरल सिद्धांत के अनुसार विद्युत् एक वस्तु से दूसरी वस्तु में चली जाती है। अमरीकी वैज्ञानिक तथा राजनीतिज्ञ [[बेंजामिन फ्रैंकलिन]] (Benjamin Franklin, सन् १७०६-१७९०) ने इस सिद्धांत का समर्थन कर, विस्तार किया। फ्रैंकलिन ने कहा कि विद्युत् न तो उत्पन्न की जा सकती है, न नष्ट ही। फ्रैंकलिन ने लीडेन जार का अध्ययन कर उसकी क्रिया को समझाने की चेष्टा की। पर फ्रैंकलिन का सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण वह प्रयोग था, सिसमें उन्होंने सिद्ध किया कि [[बादल|मेघों]] से मेघगर्जन के समय विद्युत् तथा साधारण विद्युत् के गुण समान हैं। उन्होंने यह भी कहा कि विद्युत् के कण एक दूसरे पर बल डालते हैं।
 
फ्रैंकलिन के पश्चात् एपीनुस (Aepinus, सन् १७२४-१८०२) ने इन विचारों को लिया तथा इसका आभास दिया कि दो वस्तुओं का बल उनके बीच की दूरी बढ़ाने पर घट जाता है। इस सिद्धांत का विस्तार जाजेफ प्रीस्टलि (Joseph Priestley, सन् १७३३-१८०४) तथा हेनरी कैवेंडिश (Hernry Cavendish, सन् १७३१-१८१०) ने किया। फिर कूलॉम (Coulomb, सन् १७३६-१८०६) ने खोज की कि दो आवेशों के बीच का बल, उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युतक्रमानुपाती तथा आवेशों के गुणनफल के समानुपाती होता है। विद्युत् का यह मूल नियम अब भी 'कूलॉम का बलनियम' कहा जाता है। सन् १८३७ में [[माइकल फैराडे]] (Faraday, सन् १७९१-१८६७) ने किन्हीं दो आवेशित वस्तुओं के बीच के विद्युत् बल पर माध्यम के प्रभाव का अध्ययन किया तथा पता लगाया कि यदि माध्यम हवा के स्थान पर कोई और विद्युतरोधी हो तो विद्युत् बल घट जाता है, विद्युत्रोधी के इस गुण को उन्होंने 'विशिष्ट पारवैद्युतता' (Specific Inductive capacity) अथवा पराविद्युत (Dielectric) कहा ।कहा। उन्होंने अपने बर्फ के बरतनवाले प्रसिद्ध प्रयोग (icepile experiment) द्वारा दर्शाया कि यदि किसी आवेशित चालक का एक बरतन में लाया जाए, तो बरतन के अंदर की ओर विजातीय आवेश प्रेरित होता है तथा बाहर की ओर सजातीय अवेश। फैराडे ने पराविद्युत् का गहन अध्ययन किया तथा उनके विभिन्न प्रभावों को समझाने के लिए विद्युत् बल रेखाओं का विचार उपस्थित किया तथा आवेशित वस्तुओं के बीच के खाली स्थान को 'क्षेत्र' कहा। फैराडे के क्षेत्र सिद्धांत को गणित की सहायता से गाउस (Gauss) ने आगे बढ़ाया।
 
अठ्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में आवेशों के चलन (अर्थात् विद्युत् प्रवाह) के संबंध में कई प्रयोग तथा सिद्धांत प्रकाश में आने लगे थे। सन् १७८० में इटली के ल्युगी गैलवानी (Luigi Galvani, सन् १७३७-१७९८) ने मेढक के उपर विद्युत् प्रवाह के कई प्रयोग किए। सन् १८०० में वोल्टा (Volta, सन् १७४५-१८२७) ने तनु अम्ल अथवा लवण विलयन से भीगी हुई दो असमान धातुओं में विद्युत् प्रभाव पाए तथा उनसे विद्युद्धारा प्राप्त की। इस विद्युत् प्रवाह को कई गुना करने के लिए उन्होंने ऐसी कई असमान धातुओं के जोड़ों को लेकर एक पुंज बनाया जिसे वोल्टीय पुंज (Volta's pile) कहते हैं। वोल्टा द्वारा इन प्रयोगों के अनुसार विद्युद्धारा प्राप्त करने के लिए 'वोल्टीय सेल' की रचना हुई। उसी वर्ष इंग्लैंड में निकल्सन (Nicholson) तथा कार्लाइल (Carlisle) ने इस बात का पता लगाया कि यदि पानी में विद्युत्धारा प्रवाहित की जाए तो पानी के [[हाइड्रोजन]] तथा [[ऑक्सीजन]] में अपघटन को जाता है। ऐसे अपघटन को [[वैद्युत् अपघटन]] (Electrolysis) कहते हैं। क्रुकशैक (Cruick shank, १७४५-१८००) ने पता लगाया कि विलयन के धातुलवण भी इसी प्रकार अपघटित किए जा सकते हैं। इसके पश्चात् फैराडे ने इस क्रिया का नियमित अध्ययन किया तथा 'फैराडे के नियमों' की स्थापना की। इन नियमों अथवा इनसे संबंधित प्रयोगों के आधार पर विद्युत धारा उत्पादन करनेवाले विभिन्न प्रकार के [[विद्युत सेल|सेल]] तथा संचायकों की रचना की गई है।