"प्रत्यक्षवाद (विधिक)": अवतरणों में अंतर

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विधिक प्रत्यक्षवाद को सार रूप में कहना कठिन है किन्तु प्रायः माना जाता है कि विधिक प्रत्यक्षवाद का केन्द्रीय विचार यह है: :"किसी विधिक प्रणाली में, कोई विचार (norm) वैध है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका स्रोत क्या है न कि उसके गुणदोष (merits) क्या हैं?
 
== परिचय ==
विश्लेषणात्मक चिन्तन का प्रारंभ मुख्यतः बेंथम द्वारा अठारहवीं शताब्दी के अन्त में किया गया जिसका विकास आगे चलकर आस्टिन के हाथों हुआ। इसे प्रमाणवादी विचारधारा (Positivist School) भी कहा जाता है। सामण्ड इसे व्यवस्थित विधिशास्त्र (Systematic Jurisprudence) तथा सी0के0 एलन आदेशात्मक सिद्धान्त (Imperative Theory) कहते हैं। इस विचारधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिस प्रकार भौतिक-विज्ञान विश्लेषण के बल पर आगे बढ़ता है ठीक उसी प्रकार यह किसी चीज को बिना विश्लेषण के यथावत स्वीकार नहीं कर लेती। प्राकृतिक विचारधारा की तरह यह विधि को दैवीय (ईश्वरीय) या दैव जात या प्राप्त नहीं मानती, बल्कि इसका उद्भव सम्प्रभु राज्य से हुआ मानती है। यह विचारधारा विधिक नियमों का विश्लेषण करती है। इसलिए यह ऐतिहासिक या समाजशास्त्रीय विचारधारा से भिन्न हो जाती है। यह विचारधारा नागरिक विधि तथा अन्य विधियों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन विश्लेषणात्मक ढंग से करना चाहती है तथा विधि को प्राप्त नहीं अपितु निर्मित मानती है। विधि की ऐतिहासिक प्रगति का मूल क्या है, इससे इस विचारधारा का कोई मतलब नहीं। जूलियस स्टोन ने ठीक ही कहा है ‘‘इसकी प्रमुख दिलचस्पी विधिक भावार्थों के विश्लेषण और विधिक तर्क वाक्यों के तार्किक अन्तः सम्बन्धों के बारे में खोजबीन करना है। सामण्ड ने इस विचारधारा के प्रयोजन को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
 
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मुनरो स्मिथ के अनुसार यह विचारधारा राज्य की सचेतन मुहर विधि के लिए आवश्यक मानती है। इस अर्थ में विधि सचेतन और निश्चित मानव इच्छा की अभिव्यक्ति है। प्रमाणवाद एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करता है जिससे अनुभव से परे परिकल्पनाओं को अस्वीकार कर आँकड़ों द्वारा प्रस्तुत अनुभव तक ही सीमित रहा जा सके। यह दृष्टिकोण दिए हुए तथ्यों के विश्लेषण तक सीमित रहता है तथा अनुभूति की परिघटनाओं से दूर नहीं जाता है। अतीत तथा भविष्य की परिकल्पनाओं से दूर रहकर ‘विधि जैसी है’ के तथ्यात्मक अध्ययन के कारण इसे प्रमाणवादी दृष्टिकोण नाम दिया गया है। इंग्लैण्ड में मुख्य रूप से प्रचलित होने तथा आस्टिन से जुड़े होने के नाते इसे इंग्लिश या आस्टीनियन स्कूल भी कहते हैं। इसे विधि को सम्प्रभु का समादेश मानने और उसे माने जाने की बाध्यता के कारण आज्ञात्मक सिद्धान्त (Imperative theory of Law) भी कहा जाता है। हार्ट इसे ‘‘समादेश, अनुशास्ति एवं सम्प्रभु की त्रिवेणी’’ मानते हैं। इस विचारधारा में मनुष्य द्वारा विधि के निर्माणात्मक तत्वों पर विशेष बल दिया जाता है।
 
== विश्लेषणात्मक प्रमाणवादी विचारधारा की उत्पत्ति के कारण ==
अठारहवीं शताब्दी के अन्त तथा उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ होते-होते इस विचारधारा का जन्म निम्नलिखित कारणों से हुआ।
 
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3. ऐसा प्रतीत होता है कि विश्लेषणवादी विचारधारा के द्वारा इंग्लैण्ड में सामंतों तथा पोप आदि पर सम्प्रभु शासक की श्रेष्ठता सिद्ध की गई। इस विचारधारा के साथ ही विधि के क्षेत्र में आध्यात्मिक दखलंदाजी कम हो गई।
 
== विधिक प्रमाणवाद का विभिन्न अर्थों में प्रयोग ==
विधिक प्रमाणवाद को राज्य सम्प्रभु के रूप में तथा विधि को सम्प्रभु के समादेश के रूप में और विधि के अनुपालन में अनुशास्ति के तत्व की व्याख्या के कारण विधि का आज्ञात्मक (Imperative) सिद्धान्त भी कहा गया है। विधिक प्रमाणवाद का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया गया है। आधुनिक विश्लेषणात्मक प्रमाणवादी विचारक प्रो0एच0एल0ए0 हार्ट ने स्वयं इसका प्रयोग पाँच अर्थों में स्वीकार किया है।