"जय सिंह द्वितीय": अवतरणों में अंतर

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===सवाई की मौखिक-उपाधि===
अपने पिता [[महाराजा बिशन सिंह]] के असामयिक देहान्त के बाद २५ जनवरी [[१७००]] को ११ वर्ष की लगभग बाल्य-अवस्था में वे [[आमेर]] की गद्दी बैठे।<ref> 'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ. प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 :[पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, [[जयपुर]]</ref> [[औरंगजेब]] ने उन्हें 'सवाई' की [मौखिक] उपाधि दी थी - जिसका प्रतीकात्मक-अर्थ यही है कि वे अपने समकालीनों से 'सवाया' (या सवा-गुना अधिक बुद्धिमान और वीर) थे। सुना जाता है जब [[दिल्ली]] बादशाह [[औरंगजेब]] के दरबार में युवा सवाई जयसिंह पहले-पहल हाजिर हुए, तो पता नहीं क्यों [[औरंगजेब]] ने एकाएक बालक जयसिंह के दोनों हाथ पकड़ लिए और पूछा "अब बताइये, आप क्या करेंगे ?" इस पर प्रत्युत्पन्नमति जयसिंह होठों पर मुस्कान लिए निहायत शांत स्वर से बोले, "आलमपनाह ! हमारे यहां हिन्दुओं में विवाह पर एक रिवाज है| वर, वधू का एक हाथ अपने हाथ में लेकर इस बात की प्रतिज्ञा करता है कि वह उसका हाथ जिन्दगी भर नही छोड़ेगा, उम्र भर उसका साथ निबाहेगा! आज बादशाह सलामत खुद मेरा एक हाथ नहीं, मेरे दोनों ही हाथ जब अपने हाथ में ले चुके हैं, फ़िर मुझे किस बात की परवाह?" [[औरंगजेब]] को इस चतुराई भरे जबाब की उम्मीद न थी, लेकिन इस बुद्धिमत्तापूर्ण हाज़िरजवाबी से वह बहुत प्रसन्न हुआ|<ref> डॉ. ज्ञान प्रकाश पिलानिया, 'Enlightened Government in Modern India: Heritage of Sawai Jai Singh (हेरिटेज ऑफ़ सवाई जयसिंह)' ISBN 8187359161, ISBN 9788187359166 </ref>, <ref> 'राजस्थान का इतिहास' : गोपीनाथ शर्मा : शिवलाल अग्रवाल एंड कम्पनी, आगरा </ref>
 
[[यदुनाथ सरकार]] ने अपने जयपुर इतिहास में इस 'उपाधि' के बारे में जो शब्द लिखे हैं- अविकल रूप से ये हैं-" The new Rajah also gained the title of ''Sawai'', which means 'one and a quarter', because Aurangzeb was so pleased with this youthful prince's feats before Khelna that he cried out," You are more than a man, you are ''sawa''- ''i.e.,''a hundred and twenty five per cent hero'<ref> Jadunath Sarkar : 'A History of Jaipur' : Orient BlackSwan : Extracts from chapter ' Sawai Jai Singh's Early Career' Page 149</ref>
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===बादशाह [[औरंगजेब]] की मृत्यु के बाद===
ई० १७०७ में २१ फरवरी को [[औरंगजेब]] के देहांत के बाद मुग़ल-गद्दी के लिए उसके बेटों में विकट-संघर्ष शुरू हो गया| शाह आजम ने आगरा व दिल्ली पर चढ़ाई की। उस समय तक उसने इनका मनसब ५००० जात ५०० सवार का कर दिया था। जून १८, १७०७ ई० को मौजम (मुअज्जिम) और आज़म की सेनाओं के बीच आगरा के २० मील दक्षिण में [[जाजू का युद्ध]] हुआ। जयसिंह मौजम (मुअज्जिम) के साथ थे तथा इनके सगे छोटे भाई चीमाँ जी (विजयसिंह) आज़म की सेना की तरफ। इस युद्ध में मौजम और उनके पुत्र मारे गये| जाजू की लड़ाई में आज़म की विजय हुई। इसी युद्ध में जयसिंह तथा अखेसिंह टोरड़ी भी घायल हुए | इनके कई सरदार- बिहारीदास (दांतरी), केशरीसिंह (हरसोली), सूरसिंह (हरमाड़ा) आदि मारे गये। युद्ध के आखरी समय में जयसिंह बूंदी के राजा अपने बहनोई [[बुधसिंह हाडा]] के मारफत युद्ध में विजयी आज़म से जा मिले, परन्तु उसने इनका खास स्वागत नहीं किया।<ref> यदुनाथ सरकार : पृष्ठ १५३ </ref>, <ref> [http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm] </ref>
 
===आमेर पर हमले और अपमानित जयसिंह===
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''दूसरा अश्वमेध यज्ञ बड़े पैमाने पर जयसिंह ने वर्ष १७४२ ई० में करवाया''। इन यज्ञों के अलावा जयपुर में [[पुरुषमेध यज्ञ]], [[सर्वमेध यज्ञ]], [[सोम यज्ञ]] आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण देश के पंडित-जगत में इनकी बड़ी ख्याति हुई तथा सम्पूर्ण हिन्दू-समाज ने इनकी इस सांस्कृतिक-पहल की प्रशंसा की।<ref> संस्कृत के युग-पुरुष: मंजुनाथ': प्रकाशक: 'मंजुनाथ स्मृति संस्थान, जयपुर-302001</ref>
 
आसपास की राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद जयपुर नगर उस समय विभिन्न विद्याओं, साहित्य और भारतीय-[[संस्कृति]] का आगार बन गया था। इसी कारण इसे '''दूसरी काशी''' भी कहा गया | [[कर्नल]] [[जेम्स टॉड]] ने भी माना है कि "महाराज [[सवाई जयसिंह]] ने जयपुर को हिन्दूविद्याओं का शरणस्थल बना दिया था। इस तरह भारत में सदियों से यज्ञादि की जो परम्परा लगभग बन्द हो चुकी थी, उन्हें महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर राज्य में फिर से प्रारम्भ किया।" <ref> 'राजस्थान का इतिहास' : लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड, 'साहित्यागार' प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
==सवाई जयसिंह का स्थापत्य-कला को योगदान==
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सवाई जयसिंह ने अपने गुरु ही के अनुसरण में यह अनुभव किया कि [[न्यूटन]] [Newton] और [[फ्लेमस्टीड]] [Flamsteed] आदि द्वारा उल्लेखित यूरोपीय वैज्ञानिकों के पीतल या धातु के खगोल-यंत्रों से मौसम, तापमान, घिसाई, आदि कई कारणों से गणना फलावट में अक्सर अन्तर आ जाया करता है, इसलिए इन्होंने सबसे पहले १७२४ ईस्वी में दिल्ली की वेधशाला में धातु को छोड़ कर चूने और तराशे गए पत्थर से बड़े-बड़े गणना यंत्र बनवाये।
 
फिर इसी तरह इन्होंने जयपुर में १७३४ में और सन १७३२ से १७३४ के बीच [[मथुरा]], [[बनारस]] और [[उज्जैन]] में भी अपने वास्तुविद [[विद्याधर]] के मार्गदर्शन में सम्राट जगन्नाथ द्वारा विकसित उन्नत यंत्रों- सम्राट-यन्त्र (लघु), नाडी-वलय-यन्त्र, कांति-वृक्ष-यन्त्र, यंत्रराज, दक्षिनोदक-भित्ति-यन्त्र, उन्नतांश-यन्त्र, जयप्रकाश-यन्त्र, सम्राट-यन्त्र (दीर्घ), शषतांश यंत्र, कपालीवलय यन्त्र, राशिवलय यन्त्र, चक्र यंत्र, राम यन्त्र, त्रिगंश यन्त्र आदि से युक्त नई वेधशालाएँ बनवाई।<ref> http://www.google.co.in/search?tbo=p&tbm=bks&q=inauthor:%22Jai+Singh+II+(Maharaja+of+Jaipur)%22 </ref>, <ref>http://www.indiavisitinformation.com/indian-culture/indian-monument/Jantar-Mantar-in-india.shtml</ref> मथुरा की वेधशाला नष्ट हो चुकी, काशी और उज्जैन की वेधशालाएं नष्ट होने के कगार पर हैं; अब केवल जयपुर और थोड़ी बहुत दिल्ल्ली की वेधशाला इनके वैज्ञानिक-व्यक्तित्व का स्मरण कराती हैं|
 
===जयपुर दरबार में विदेशी विद्वान्===
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===समाज-सुधारक के रूप में सवाई जयसिंह===
सवाई जयसिंह ने सभी समाजों के लिए परंपरा संबंधी सुधार-कार्य किये। ब्राह्मण समाज में कई सुधार करते हुए वैरागी साधुओं में व्याप्त व्यभिचार मिटाने के लिए इन्होंने उनको पुनर्विवाह कर अपनी पत्नी साथ रखने (गृहस्थ आश्रम में प्रवेश) का विधान किया। बादशाह से फकीरों व सन्यासियों की मृत्यु के बाद, उनकी सम्पत्ति राज्य के पक्ष में जब्त नहीं करने की आज्ञा जारी करवाई, किन्तु सन्यासियों को 'निजी सम्पत्ति' रखने से रोका। बादशाह से अनुरोध के बाद हिन्दुओं पर लगाया गया पुराना भयंकर टैक्स [[जजिया कर]] समाप्त करवाया, ब्राह्मणों और राजपूतों के शादीब्याह आदि में हैसियत से बाहर जा कर दहेज़ देने और मृत्युभोज आदि सामाजिक अवसरों पर धन की बर्बादी रोकने की कोशिश भी की। जगह-जगह धर्मशालाएं, कई संस्कृत पाठशालाएं और विद्यालय खोले, विधवा-विवाह का पक्ष लिया, स्त्री-हत्या, कन्या-वध रोका, 'सर्वधर्म समभाव' की भावना को बढ़ावा दिया, विशेषतः जयपुर में [[जैन]] संप्रदाय को प्रोत्साहित किया, दिल्ली, आगरा, अन्य स्थानों से बड़े २ व्यापारियों को ला कर जयपुर में बसाया, देश में घूम-घूम कर विद्वानों की खोज की, उन्हें राज-सम्मान बक्शा, बड़ी २ जागीरें दीं और उत्तर भारत के समूचे हिन्दू-समाज को ऐसे कठिन वक़्त बाहरी आक्रान्ताओं से मुक्त रखा, जब राजनैतिक उठापटक, केंद्र में प्रशासनिक अराजकता और अनेक राजपूताना राज्यों के बीच सर-फुट्टवल अपने चरम पर थी| <ref> 'जयपुर-दर्शन' सम्पादक : [डॉ. प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 203] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर </ref>
 
===शासन-व्यवस्था===