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== परिचय ==
अंडजस्तनी प्राणी अन्य सभी [[स्तनधारी|स्तनधारियों]] से कुछ इतने भिन्न हैं कि इनके लिए प्रोटोथीरिया नामक एक अलग उपवर्ग की कल्पना करनी पड़ी है जिसमें केवल वरटचंच (डक बिल, ऑरनिथोरिंकस) तथा सकंटी (स्पाइनी ऐंट-ईटर, टैकीग्लॉसस तथा ज़ैग्लॉसस) नामक प्राणी रखे जाते हैं। ये स्तनधारी प्राणी (मैमाल) हैं, क्योंकि इनके सारे शरीर पर बाल, पूर्ण विकसित उर:प्राचीर (डायफ्राम), चार वेश्मोंवाला हृदय, केवल बायाँ ही महाधमनी चाप (एऑटिक आर्च), केवल दंतास्थि की ही बनी अधोहन्वस्थि (मैंडिबिल), शिशुओं के पोषण के लिए नारी के उदर पर उपस्थित स्तनग्रंथियाँ, शरीर का एकसम ताप, त्वचा में स्वेद ग्रंथियाँ तथा तैल ग्रंथियाँ, तीन कर्णस्थिकाएँ तथा (संकटियों में) परिवलित (कनवोल्यूटेड) मस्तिष्क
[[चित्र:Platypus.jpg|right|thumb|300px|प्लेटिपस (वरट चचु ; ऑरनिथोरिंकस)]]
इन प्राणियों के सिर का अगला भाग तुंड के रूप का होता है और प्रौढ़ावस्था में दाँत अनुपस्थित रहते हैं। स्तनग्रंथियों में चूचुक नहीं होते। नारी में न तो गर्भाशय ही होता है और न योनि ही। नर में वृषण उदर में ही स्थित रहते हैं तथा शिश्न से केवल शुक्राणु बाहर आते हैं, मूत्र नहीं। पाचन तथा जननतंत्र अलग अलग छिद्रों द्वारा बाहर न खुलकर केवल एक अवस्कर (गुदा) द्वार ही बाहर खुलते हैं। स्तनियों में एक यही ऐसे हैं जिनमें क्रव्यांगक (कैरंकल) तथा अंडदंत (एग टूथ) पाए जाते हैं। जीवाश्मों (फ़ॉसिल्स) की अनुपस्थिति में इनके प्राचीन इतिहास के विषय में ऐसा अनुमान है कि इनका उद्भव संभवत: रक्ताश्म (ट्रायसिक) युग में (या इससे भी पूर्व) हुआ था। ये प्राणी आज आस्ट्रेलिया, तस्मानिया, न्यू गिनी तथा पापुआ में ही शेष रह गए हैं
[[चित्र:Ameisenigel.jpg|right|thumb|300px|सकंटी (टैकीग्लॉसस)]]
अंडजस्तनिन गण के उदाहरण सकंटी (टैकीग्लॉसस) तथा प्रसकंटी (ज़ैकीग्लॉसस) हैं, जिनकी पीठ पर आत्मरक्षा के साधनस्वरूप बालों के साथ ही अनेक पृष्ठकंट होते हैं। उनके छोटे तथा मजबूत पैरों की अँगुलियों में, अपने रहने का विवर खोदने और अपने आहार के लिए चींटियों और दीमकों के बिल खोदने के लिए लंबे, तेज तथा सुदृढ़ नख होते हैं। एक अन्य उदाहरण अर्धजलचारी [[वरटचंचु]] हैं जो जल में डुबकी लगाकर अपनी बतख की सी चोंच से घोंघे, सीप, कृमि तथा कठिनिवल्कियों को कीचड़ से निकालकर अपने गालों में भर लाता है और तट पर बनाए हुए अपने विवर में जाकर उनके कवच आदि तोड़कर आराम से उन्हें खाता है। वरटचंचु गोता लगाने तथा तैरने में बड़ा ही कुशल होता है, जिसके लिए इसके पैरों की अँगुलियाँ त्वग्बद्ध होती हैं। इसका मुलायम लोमश चर्म (ऊर्णाजिन) तथा मांस दोनों ही मनुष्य अपने उपयोग में लाता है।
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