"अनंत": अवतरणों में अंतर

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गणितीय विश्लेषण में प्रचलित "अनंत" इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
 
यदि '''य''' कोई चर है और '''फ (य)''' कोई य का फलन है, और यदि अब चर य किसी संख्या '''क''' की ओर अग्रसर होता है तब फ (य) इस प्रकार बढ़ता ही चला जाता है कि वह प्रत्येक दी हुई संख्या '''ण''' से बड़ा हो जाता है और बड़ा ही बना रहता है चाहे ण कितना भी बड़ा हो, तो कहा जाता है कि य = क के लिए फ (य) की सीमा अनंत है।
 
भिन्नों की परिभाषा से स्पष्ट है कि भिन्न व/स वह संख्या है जो स से गुणा करने पर गुणनफल व देती है। यदि व, स में से कोई भी शून्य न हो तो व/स एक अद्वितीय राशि का निरूपण करता है। फिर स्पष्ट है कि 0/स सदैव समान रहता है, चाहे स कोई भी सांत संख्या हो। इसे परिमेय (रैशनल) संख्याओं को शून्य कहा जाता है और गणनात्मक (कार्डिनल) संख्या 0 के समान है। विपरीतत:, व/0 एक अर्थहीन पद है। इसे अनंत समझना भूल है। यदि क/य में क अचर रहता है, और य घटता जाता है, और क, य दोनों धनात्मक हैं, तो क/य का मान बढ़ता जाएगा। यदि य शून्य की ओर अग्रसर होता है तो अंततोगत्वा क/य किसी बड़ी से बड़ी संख्या से भी बड़ा हो जाएगा।
 
[[कैंटर]] (1845-1918) ने अनंत की समस्या को दूसरे ढंग से व्यक्त किया है। कैंटरीय संख्याएँ, जो अनंत और सांत के विपरीत होने के कारण कभी-कभी अतीत (ट्रैंसफाइनाइट) संख्याएँ कही जाती हैं, [[ज्यामिति]] और [[सीमासिद्धांत]] में प्रचलित अनंत की परिभाषा से भिन्न प्रकार की हैं। कैंटर ने लघुतम अतीत गणनात्मक संख्या (ट्रैंसफाइनाइट कार्डिनल नंबर) (एक, दो तीन इत्यादि कार्डिनल संख्याएँ हैं; प्रथम, द्वितीय, तृतीय इत्यादि आर्डिनल संख्याएँ हैं।) अ0 (अकार शून्य, अलिफ-जीरो) की व्याख्या प्राकृतिक संख्याओं 1, 2, 3... के संघ ([[सेट]]) की गणनात्मक संख्या से की है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/अनंत" से प्राप्त