"अब्दुर रहमान ख़ान": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Ameer Abdurahman Khan.jpg|thumb|'अब्दुर रहमान ख़ान १८८० से १९०१ तक [[अफ़ग़ानिस्तान]] के [[अमीर]] थे]]
'''अब्दुर रहमान ख़ान''' ([[पश्तो]]: عبد رحمان خان) सन १८८० से लेकर सन १९०१ तक [[अफ़ग़ानिस्तान]] के [[अमीर]] थे. इनका जन्म १८४० से १८४४ के बीच, और मृत्यु १ अक्टूबर १९०१ में हुई. १८७८-१८८० के [[द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध]] की हार के बाद अफ़ग़ानिस्तान की जो केन्द्रीय सरकारी व्यवस्था चौपट हो गई थी उसे अब्दुर रहमान ख़ान ने फिर से बहाल किया.
 
== शुरू की जीवनी ==
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कुछ देर में दोनों भाई, अफज़ल ख़ान और शेर अली ख़ान, में समझौता हो गया. लेकिन तब तक अमीर शेर अली ख़ान को अब्दुर रहमान ख़ान की जुर्रत का खटका हो चूका था और वह उसे एक ख़तरे के रूप में देखने लगा. शेर अली ख़ान ने अब्दुर रहमान ख़ान को अपने दरबार में तुरंत हाज़िर होने का फ़रमान दिया, लेकिन अब्दुर रहमान ख़ान ने अमीर के इरादे भांप लिए. वह [[आमू दरिया]] को पार कर के काबुल से [[बुख़ारा]] भाग खड़ा हुआ. शेर अली ख़ान ने क्रोधित होकर अफ़ज़ल ख़ान को फ़ौरन कारावास में बंद कर दिया, जिस से दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान के कुछ हिस्से भड़ककर विद्रोह कर पड़े. जैसे-तैसे शेर अली ख़ान ने अपनी फौजें लगाकर इस विद्रोह पर क़ाबू पाया ही था के अब्दुर रहमान ख़ान आमू दरिया वापिस पार कर के फिर से उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में आ गया. वहाँ उसने अमीर की फ़ौजों में बग़ावत फैला दी और उन्हें अपने साथ ले लिया. कुछ देर तक तो झडपें चलती रहीं लेकिन मार्च १८६६ में अब्दुर रहमान ख़ान और उनके चाचा (आज़म ख़ान) काबुल पहुँच गए और क़ब्ज़ा कर लिया. शेर अली ख़ान ने उनके विरुद्ध [[कन्दहार]] से कूच किया और मई १० को दोनों फ़ौजें शेख़ाबाद के पास भिड़ गयी. इस लड़ाई में शेर अली ख़ान के बहुत से सैनिक भगौड़े हो गए और अब्दुर रहमान ख़ान की जीत हुई. उसने तुरंत अपने पिता अफ़ज़ल ख़ान को [[ग़ज़नी]] में क़ैद से रिहा किया और उन्हें काबुल में अफ़ग़ानिस्तान का अमीर बना दिया. नए अमीर की सेनाएं शेर अली ख़ान की सेनाओं को हराती गयी और १८६७ में उन्होंने कन्दहार पार भी क़ब्ज़ा जमा लिया.
 
१८६७ के अंतिम दिनों में अमीर अफ़ज़ल ख़ान की मृत्यु हो गयी और उनके छोटे भाई आज़म ख़ान नए अमीर बन गए. उन्होंने अब्दुर रहमान ख़ान को फिर से उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में अपना क्षेत्रपाल बना दिया. एक वर्ष के अन्दर-अन्दर ही अमीर के ख़िलाफ़ एक नया विद्रोह शुरू हो गया, और शेर अली ख़ान फिर से लड़ने आ गया. ३ जनवरी १८६९ को तीनाहख़ान के क़स्बे के पास हुई लड़ाई में शेर अली ख़ान ने आज़म ख़ान और अब्दुर रहमान ख़ान को हरा दिया. दोनों चाचा-भतीजा [[समरक़न्द]] भाग गए जहाँ उन्होंने [[रूस]] की शरण ली. आज़म ख़ान ने उसी साल, अक्तूबर १८६९, में दम तोड़ दिया.
 
== देश निकाले का जीवन ==