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प्रांगारकाल विधि के माध्यम से तिथि निर्धारण होने पर [[इतिहास]] एवं वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी होने में सहायता मिलती है। यह विधि कई कारणों से विवादों में रही है वैज्ञानिकों के अनुसार रेडियोकॉर्बन का जितनी तेजी से क्षय होता है, उससे २७ से २८ प्रतिशत ज्यादा इसका निर्माण होता है। जिससे संतुलन की अवस्था प्राप्त होना मुश्किल है। ऐसा माना जाता है कि प्राणियों की मृत्यु के बाद भी वे प्रांगार का अवशोषण करते हैं और अस्थिर [[रेडियोधर्मी]]-तत्व का धीरे-धीरे क्षय होता है। पुरातात्विक नमूने में उपस्थित कॉर्बन-१४ के आधार पर उसकी डेट की गणना करते हैं। [[३५६]] ई. में [[भूमध्य सागर]] के तट पर आये विनाशाकारी सूनामी की तिथि निर्धारण वैज्ञानिकों ने प्रांगार डेटिंग द्वारा ही की है।<ref>[http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2875413.cms फिर से आ सकता है धरती पर 'खौफनाक दिन']</ref>
रेडियोप्रांगार डेटिंग तकनीक का आविष्कार [[१९४९]] में [[शिकागो विश्वविद्यालय]] के विलियर्ड लिबी और उनके साथियों ने किया था। [[१९६०]] में उन्हें इस कार्य के लिए [[रसायन विज्ञान]] के [[नोबेल पुरस्कार]] से सम्मानित किया गया था। उन्होंने प्रांगार डेटिंग के माध्यम से पहली बार लकड़ी की आयु पता की थी। वर्ष [[२००४]] में यूमेआ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को[[स्वीडन]] के दलारना प्रांत की फुलु पहाड़ियों में लगभग दस हजार वर्ष पुराना [[देवदार]] का एक पेड़ मिला है जिसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह [[विश्व का सबसे पुराना वृक्ष]] है। प्रांगार डेटिंग पद्धति से गणना के बाद वैज्ञानिकों ने इसे धरती का सबसे पुराना पेड़ कहा है।<ref>[http://paryavaran-digest.blogspot.com/2008/05/blog-post_21.html वैज्ञानिकों ने खोजा `सबसे बूढ़ा पेड़'] बुधवार, [[२१ मई]], [[२००८]]।
== संदर्भ ==
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