"गेहूँ के जवारे": अवतरणों में अंतर

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जब गेहूं के बीज को अच्छी उपजाऊ जमीन में बोया जाता है तो कुछ ही दिनों में वह अंकुरित होकर बढ़ने लगता है और उसमें पत्तियां निकलने लगती है। जब यह अंकुरण पांच-छह पत्तों का हो जाता है तो अंकुरित बीज का यह भाग '''गेहूं का ज्वारा''' कहलाता है। औषधीय विज्ञान में गेहूं का यह ज्वारा काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। गेहूं के ज्वारे का रस कैंसर जैसे कई रोगों से लड़ने की क्षमता रखता है।
 
प्रकृति ने हमें स्वस्थ, ऊर्जावान, निरोगी और आयुष्मान रहने के लिए हमें अनेक प्रकार के पौष्टिक फल, फूल, मेवे, तरकारियां, जड़ी-बूटियां, मसाले, शहद और अन्य खाद्यान्न दिये हैं। ऐसा ही एक संजीवनी का बूटा है गेहूँ का ज्वारा। इसका वानस्पतिक नाम “ट्रिटिकम वेस्टिकम” है। डॉ.डॉ॰ एन विग्मोर ज्वारे के रस को “हरित रक्त” कहती है। इसे गेहूँ का ज्वारा या घास कहना ठीक नहीं होगा। यह वास्तव में अंकुरित गेहूँ है।
 
गेहूँ का ज्वारा एक सजीव, सुपाच्य, पौष्टिक और संपूर्ण आहार है। इसमें भरपूर क्लोरोफिल, किण्वक (एंजाइम्स), अमाइनो एसिड्स, शर्करा, वसा, विटामिन और खनिज होते हैं। क्लोरोफिल सूर्यप्रकाश का पहला उत्पाद है अतः इसमें सबसे ज्यादा सूर्य की ऊर्जा होती है और भरपूर ऑक्सीजन भी।
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...और फिर चैत्र शुक्ल चतुर्थी को गणगौर माता बिदा होती है। सजी-धजी शोभायात्रा के साथ तालाब-बावड़ी पर श्रद्धा के साथ ज्वारे विसर्जित किए जाते हैं।
 
पश्चिमी देशों में गेहूँ के ज्वारों से उपचार की पद्धति डॉ.डॉ॰ एन. विग्मोर ने प्रारम्भ की थी। बचपन में उनकी दादी प्रथम विश्व युद्ध में घायल हुए जवानों का उपचार जड़ी-बूटियों, पैड़-पौधों और विभिन्न प्रकार की घासों से किया करती थी।
 
तभी से उन्होंने जड़ी-बूटियों और विभिन्न घास के रस द्वारा बीमारियों के उपचार और अनुसंधान करना अपना शौक बना लिया। 50 वर्ष की उम्र में डॉ.डॉ॰ एन. विग्मोर को आंत में कैंसर हो गया था। जिसके लिए उन्होंने गेहूँ के ज्वारों का रस और अपक्व आहार लिया और प्रसन्नता की बात थी कि एक वर्ष में वे कैंसर मुक्त हो गई। उन्होंने बोस्टन में एन विगमोर इन्स्टिट्यूट खोला जो आज भी काम कर रहा है। तब से लेकर अपनी मृत्यु तक वह गेहूँ के ज्वारे और अपक्व आहार द्वारा रोगियों का उपचार करती रही। उन्होंने इस विषय पर 35 पुस्तकें भी लिखी हैं।
 
== अमाइनो एसिड और उनके कार्य ==
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; क्लोरोफिल
 
गेहूँ के ज्वारे का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है क्लोरोफिल। यह क्लोरोप्लास्ट नामक विशेष प्रकार के कोषों में होता है। क्लोरोप्लास्ट सूर्यकिरणों की सहायता से पोषक तत्वों का निर्माण करते हैं। यही कारण है कि वैज्ञानिक डॉ.डॉ॰ बर्शर क्लोरोफिल को “संकेन्द्रित सूर्यशक्ति” कहते हैं। वैसे तो हरे रंग की सभी वनस्पतियों में क्लोरोफिल होता है, किंतु गेहूँ के ज्वारे का क्लोरोफिल श्रेष्ट है, क्योंकि क्लोरोफिल के अलावा इनमें 100 अन्य पौष्टिक तत्व भी होते हैं।
 
सभी जानते हैं कि मानव रक्त में हीमोग्लोबिन होता है। इस हीमोग्लोबिन में एक लाल रंग का द्रव्य होता है जिसे हीम कहते हैं। हीम और क्लोरोफिल की रासायनिक संरचना में बहुत समानता होती है। दोनों में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के परमाणुओं की संख्या तथा उनका विन्यास लगभग एक जैसा होता है। हीम और क्लोरोफिल की संरचना में केवल एक ही अंतर है, क्लोरोफिल के केन्द्र स्थान में मेग्नीशियम होता है, जबकि हीमोग्लोबिन के केन्द्र स्थान में लौहा होता है।
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गेहूँ का ज्वारा में विटा-12 को मिला कर 13 विटामिन, कई खनिज जैसे सेलेनियम और 20 अमाइनो एसिड्स होते है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट किण्वक सुपरऑक्साइड डिसम्यूटेज और अन्य 30 किण्वक भी होते हैं। एस ओ डी सबसे खतरनाक फ्री-रेडिकल रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पिसीज को हाइड्रोजन परऑक्साइड (जिसमें कैंसर कोशिका का सफाया करने के लिए एक अतिरिक्त ऑक्सीजन का अणु होता है) और ऑक्सीजन के अणु में बदल देता है।
 
सन् 1938 में महान अनुसंधानकर्ता डॉ.डॉ॰ पॉल गेरहार्ड सीजर, एम.डी. ने बताया था कि कैंसर का वास्तविक कारण श्वसन क्रिया में सहायक एंजाइम साइटोक्रोम ऑक्सीडेज का नष्ट होना है। सरल शब्दों में जब कोशिका में ऑक्सीजन उपलब्ध न हो या सामान्य श्वसन क्रिया बाधित हो जाये तभी कैंसर जन्म लेता है।
 
ज्वारों में एक हार्मोन एब्सीसिक एसिड (ए बी ए) होता है जो हमें अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। डॉ.डॉ॰ लिविंग्स्टन व्हीलर के अनुसार एब्सीसिक एसिड कोरियोनिक गोनेडोट्रोपिन हार्मोन को निष्क्रिय करता है और वे ए बी ए को कैंसर उपचार का महत्वपूर्ण पूरक तत्व मानती थी। डॉ.डॉ॰ लिविंग्स्टन ने पता लगाया था कि कैंसर कोशिका कोरियोनिक गोनेडोट्रोपिन से मिलता जुलता हार्मोन बनाती हैं। उन्होंने यह भी पता लगाया था कि गेहूँ के ज्वारे को काटने के 4 घंटे बाद उसमें ए बी ए की मात्रा 40 गुना ज्यादा होती है। अतः उनके मतानुसार ज्वारे के रस को थोड़ा सा तुरंत और बचा हुआ 4 घंटे बाद पीना चाहिये।
2- गेहूँ के ज्वारे में अन्य हरी तरकारियों की तरह भरपूर ऑक्सीजन होती है। मस्तिष्क और संपूर्ण शरीर ऊर्जावान तथा स्वस्थ रखने के लिए भरपूर ऑक्सीजन आवश्यक है।
3- डॉ.डॉ॰ बरनार्ड जेन्सन के अनुसार गेहूँ के ज्वारे का रस कुछ ही मिनटों में पच जाता है और इसके पाचन में बहुत कम ऊर्जा खर्च होती है।
4- यह कीटाणुरोधी हैं, उन्हें नष्ट करता है और उनके विकास को बाधित करता है।
5- यह शरीर से हानिकारक पदार्थों (टॉक्सिन्स), भारी धातुओं और शरीर में जमा दवाओं के अवशेष का विसर्जन करता है।
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== सेवन का तरीका ==
ज्वारे का रस सामान्यतः 60-120 एमएल प्रति दिन या प्रति दूसरे दिन खाली पेट सेवन करना चाहिये। यदि आप किसी बीमारी से पीड़ित हैं तो 30-60 एमएल रस दिन मे तीन चार बार तक ले सकते हैं। इसे आप सप्ताह में 5 दिन सेवन करें। कुछ लोगों को शुरू में रस पीने से उबकाई सी आती है, तो कम मात्रा से शुरू करें और धीरे-धीरे मात्रा बढ़ायें। ज्वारे के रस में फलों और सब्जियों के रस जैसे सेब फल, अन्नानास आदि के रस को मिलाया जा सकता है। हां इसे कभी भी खट्टे रसों जैसे नीबू, संतरा आदि के रस में नहीं मिलाएं क्योंकि खटाई ज्वारे के रस में विद्यमान एंजाइम्स को निष्क्रिय कर देती है। इसमें नमक, चीनी या कोई अन्य मसाला भी नहीं मिलाना चाहिये। ज्वारे के रस की 120 एम एल मात्रा बड़ी उपयुक्त मात्रा है और एक सप्ताह में इसके परिणाम दिखने लगते हैं। डॉ.डॉ॰ एन विग्मोर ज्वारे के रस के साथ अपक्व आहार लेने की सलाह भी देती थी।
 
गेहूँ के ज्वारे चबाने से गले की खारिश और मुंह की दुर्गंध दूर होती है। इसके रस के गरारे करने से दांत और मसूड़ों के इन्फेक्शन में लाभ मिलता है। स्त्रियों को ज्वारे के रस का डूश लेने से मूत्राशय और योनि के इन्फेक्शन, दुर्गंध और खुजली में भी आराम मिलता है। त्वचा पर ज्वारे का रस लगाने से त्वचा का ढीलापन कम होता है और त्वचा में चमक आती है।