"उत्परिवर्तन": अवतरणों में अंतर

छो पूर्णविराम (।) से पूर्व के खाली स्थान को हटाया।
छो बॉट: अनावश्यक अल्पविराम (,) हटाया।
पंक्ति 10:
जीवन की इकाई कोशिका है और कोशिकाओं का समुच्चय जीवित शरीरी या प्राणी कहा जाता है। कल्पना कीजिए, इस सृष्टि में यदि एक ही आकार के जीव होते, एक ही ऋतु होती और रात अथवा दिन में से कोई एक ही रहा करता तो कैसा लगता। एक ही प्रकार का भोजन, एक ही प्रकार का कार्य, एक ही प्रकार के परिवेश का निवास ऊब उत्पन्न कर देता है इसीलिए हम उसमें किंचित् परिवर्तन करते रहते हैं। प्रकृति भी एकरसता से ऊबकर परिवर्तन करती रहती है। जंतुजगत् की विविधता पर हम दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि, उदाहरण के लिए, बिल्ली जाति के जंतुओं में ही कितना भेद है : बिल्ली, शेर, चीता, सिंह, सभी इसी वर्ग के जंतु हैं। इसी प्रकार, कुत्तों में देशी, शिकारी, बुलडाग, झबरा, आदि कई नस्ल दिखलाई देते हैं।
 
इस विविधता के मूल कारण का ज्ञान सभी को नहीं होता, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि कौतूहलवश भी कोई इस भेद को जानना नही चाहता। हमें यह वैविध्य इतना सहज और सामान्य प्रतीत होता है कि हमारा ध्यान इस ओर कभी नहीं जाता। किंतु, यदि हम इस वैविध्य के कारण की मीमांसा करें तो सचमुच हमें चकित हो जाना पड़ेगा। इस वैविध्य का मूल कारण उत्परिवर्तन है।
 
उत्परिवर्तन की परिभाषा अनेक प्रकार से दी गई है, किंतु सभी का निष्कर्ष यही है कि यह एक प्रकार का आनुवंशिक परिवर्तन (hereditary change) है। [[कोशिकाविज्ञान]] (cytology) के विद्यार्थी यह जानते हैं कि कोशिकाओं के केंद्रक में [[गुणसूत्र]] (chromosomes) एक नियत युग्मसंख्या (no. of pairs) में पाए जाते हैं। इन सूत्रों पर निश्चित दूरियों और स्थानों (loci) पर मटर की फलियों की भाँति जीन्स (genes) लिपटे रहते हैं। जीवरासायनिक दृष्टि से जीन्स न्यूक्लीइक अम्ल (nucleic acids) होते हैं। इनकी एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये, कोशिका विभाजन (cell divisions) के समय, स्वत: आत्मप्रतिकृत (self replicated) हो जाते हैं।
पंक्ति 90:
[[एक्स-किरण]] का प्रभाव उसकी मात्रा पर निर्भर करता है। मुलर ने मात्रा में वृद्धि करके उत्परिवर्तन दर में वृद्धि का प्रभाव देखा था। आगे चलकर उनके शिष्य ओलिवर ने और भी प्रयोग किए और अनेक प्रकार के तथ्य उपस्थित किए। एक्स-किरणों का प्रभाव इतना अधिक इसलिए पड़ता है कि वे गुणसूत्रों को भंग कर देती हैं, जिनसे भाँति भाँति के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। इनके अतंर्गत् स्थानांतरण प्रतिलोमन (inversion), डिलीशन (delition) द्विगुणन आदि समाविष्ट हैं। सच पूछिए तो किरणन, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, तभी उत्परिवर्तन करता है, जब उसमें आयन उत्पन्न करने की क्षमता हो। उदाहरण के लिए, रेडियम में तीन प्रकार के [[विकिरण]] (अल्फा, बीटा, गामा) उत्पन्न होते हैं। लैन्सन ने [[गामा विकिरण]] पर कई सफल प्रयोग किए हैं।
 
[[अल्ट्रावायलेट प्रकश]]- अल्टेनवर्ग ने अल्ट्रावायलेट प्रकाशकिरणों के उत्परिवर्तित प्रभावों के ड्रोसोफ़िला पर प्रयोग किए हैं। उन्होंने वयस्क मक्खियों के स्थान पर उनके अंडों पर किरणन किया। इन किरणों का प्रभाव उच्चतर जंतुओं और मनुष्यों पर न पड़कर केवल बहुत कोमल जंतुओं और जनन कोशिकाओं पर ही पड़ सकता है। इनकी शक्ति बहुत मंद तथा न्यून होती है। जब तक इन्हें विशेष रसायनों से संलग्न नहीं किया जाता, तब तक इनकी कार्यक्षमता हीन ही रहती है। इन किरणों का प्रभाव एक्स-किरणों की ही भॉति होता है और ये भी जीन उत्परिवर्तन तथा गुणसूत्रीय विपथन (aberrations) दोनों उत्पन्न करते हैं। आयनकारक विकिरण के फलस्वरूप गुणसूत्रों में यदि एकल भंग (single break) होता है, तो ऊतकों का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक होगा। किंतु, जब दोहरा भंग होता है, और वह भी एक ही गुणसूत्र में, जब उनसे हीनता (deficiency) और प्रतिलोमन (inversion) उत्पन्न होगा। यही दोहरा भंग यदि असमजात (non-homologous) गुणसूत्रों में होता है तो स्थानांतरण उत्पन्न होगा।
 
== उत्परिवर्तनों का महत्व ==
पंक्ति 109:
[[जनसंख्या आनुवंशिकी]] के नाम से विज्ञान की एक नई शाखा तेजी से विकसित हो रही है। इसके अंतर्गत मानवकल्याण की अनेक समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जा रहा है। आज का विश्व बहुत सीमित एवं संकुचित होता जा रहा है। एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक पहूँचने में अब कुछ घंटों का ही समय लगता है। अतंरराष्ट्रीय आवागमन, परिव्रजन, युद्ध, शरणार्थी जीवन आदि के कारण मनुष्य अत्यधिक घुलते मिलते जा रहे हैं। इस घालमेल के परिणामों का अध्ययन करना इस नई शाखा का मुख्य लक्ष्य है। उत्परिवर्तन के लिए संकरण (cross-breeding) की एक ऐसी विधि आज वैज्ञानिकों को सुलभ है, जिसका प्रयोग वे धड़ल्ले से करते जा रहे हैं। इसका परिणाम आगे क्या होगा, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है।
 
मनुष्य के कल्याण के लिए जनसंख्या आनुवंशिकी क्या कुछ कर पाएगी, यह अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। विश्व की जनसंख्या जिस द्रुत गति से बढ़ती जा रही है और भोजन तथा आवास की समस्याएँ जितनी गंभीर बनती जा रही है, उनसे आशंका उत्पन्न होती है कि कहीं डाइनोसोरों, उड़नदैत्यों (flving demons) आदि की भाँति मनुष्य भी एक न एक दिन पृथ्वी से लुप्त (extinct) हो जाए। उत्परिवर्तन, जीन विनिमय, संकरण, और अंगों के प्रतिरोपण, कृत्रिम गर्भाधान, कृत्रिम उर्वरक द्वारा अन्नोत्पादनवृद्धि शुद्ध और असली घी, दूघ, तेल आदि के स्थान पर वनस्पति, दुग्धचूर्ण और कपास, ऊन, रेशम, पाट आदि के वस्त्रों के स्थान पर नाइलन, टेरिलोन पोलिएस्टर, काँच, प्लास्टिक आदि का प्रयोग जिस द्रुत गति से हो रहा है उससे भाँति-भाँति आशंकाओं का उठना स्वाभाविक ही होगा।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==