"बहुव्यक्तित्व विकार": अवतरणों में अंतर
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[[व्यक्तित्व]] की दो परस्परविरोधी अथवा सर्वथा भिन्न शैलियों का उसकी एक ही इकाई में अपनी पृथक् सत्ता सुरक्षित रखते हुए, इकट्ठे रहने का बोध '''द्विव्यक्तित्व''' (Dual Personality) है। एक ही व्यक्ति के घेरे में रहकर भी ये अपने में सुसंबद्ध एवं व्यवस्थित होते हैं; एक दूसरे के प्रति तटस्थ एवं विस्मृत रहते हैं। जब एक व्यक्तित्व-खंड चेतना के धरातल पर सक्रिय रहता हैं तो दूसरे की स्मृति नहीं रहती, यद्यपि [[स्मृति]] के मामले में अपवाद भी होते हैं। अपने ही भिन्न स्वरूपबोधों की असंपृक्तता व्यवहार में प्रकट होकर लोगों को अचरज में डाल देती है। सर्वथा विरोधी आचरणों से उसके सामाजिक संबंध लगातार बाधित एवं व्यतिक्रमित होते हैं, टूट जाते हैं। द्विव्यक्तित्वधारी, [[मानसिक चिकित्सा]] का एक नैदानिक विषय (पैथालाजिकल केस) बन जाता है।
ये व्यक्तित्व-खंड दो से ज्यादा भी होते है। इनके कई नाम भी चलते हैं- '''बहुव्यक्तित्व''' (मल्टिपुल पर्सनैलिटी), '''खंडित व्यक्तित्व''' (स्प्लिट पर्सनैलिटी); '''असंपृक्त व्यक्तित्व''' (Dissociative personality), एकांतरित तथा स्थानांतरित (आल्टर्नेंट तथा डिस्प्लेस्ड) व्यक्तित्व आदि। लोककथाओं तथ साहित्य में ऐसे व्यक्तित्व परिवर्तन के दृष्टांत मिलते हैं। [[राबर्ट लुई सटीवेंसन]] के प्रसिद्ध उपन्यास '
== परिचय ==
परस्पर विरोधी वृत्तियाँ अथवा उनका एक ही व्यक्ति में प्राप्त होना मनोविज्ञान क्या, सामन्य ज्ञान के लिए भी नई वस्तु नहीं। युंग का 'अंतर्मुख' एवं 'बहिर्मुख' (इंट्रोवर्ट एक्स्ट्रोवर्ट) व्यक्तित्व-प्रकार तथा ब्ल्यूलर कथित 'अंतर्बहिर्मुख' (एंबीवर्ट; लै. 'एंबी' = दोनों) व्यक्ति की वृत्ति - 'द्वैधभाव' (एंबीवैलेंस), आदि प्रसिद्ध ही हैं। मनोरोग में भी क्रेश्चमर संमत 'सिजाएड' तथा 'साइक्लाएड', क्रेपलिन कथित उत्साह विषाद मनोचक्र (मैनिक डिप्रेसिव साइकोसिस) तथा [[मनोविदलता]] या मनोह्रास ('डैमेंशिया प्रीकावस' या सिजोफ्रीनिया) आदि के निरूपण समष्टि में इसी एक तथ्य की पुष्टि करते हैं कि व्यक्ति में मन: शक्ति को बाहरी जगत् से संबद्ध कराने की विधायक-वृत्ति तथा बाह्य जगत् से खींचकर कछुए की भाँति अंतर्जगत् में सिकोड़ लेने की निषेधात्मक वृत्ति, दोनों ही काम करती रहती हैं। किसी एक का अपेक्षाकृत अधिक प्राधान्य व्यक्तित्व के 'प्रकार' (टाइप) का निरूपक होता है। 'द्वैधभाव' में कभी तो दोनों वृत्तियों का संतुलन रहता है, जो कि आदर्श स्थिति होती है, कभी दोनों ओर बारी-बारी बेसाख्ता ढुल जाने की स्थिति होती है। अंतिम ही अपने चरम उत्कर्ष में 'द्विव्यक्तित्व' बनता है।
परवर्ती मनोवैज्ञानिकों ने 'खंडों' पर कम और मानसिक एकता पर अधिक जोर दिया। उपचेतन की सर्वथा अलग कटी मनोभूमि की वकालत करने के लिए फ्रायड की तीव्र आलोचनाएँ हुई हैं किंतु प्रसिद्ध फ्रायडवादी अर्नेस्ट जोंस इसी अलगाव को कुछ समीप लाता हुआ कहता है कि हमारी दमित वासनाएँ जो मूलत: यौन प्रकृति की होती हैं अपना एक स्वतंत्र विकास करने लगती है और कभी कभी इतनी तीव्र बन जाती हैं कि कुछ काल के लिए चेतन धरातल पर भी प्रभुत्व जमा लेती हैं। निद्राचारण (सोम्नांबुलिज़्म) जैसी अतिमानसिक अवस्थाएँ इसी छिपे शक्तिमान 'व्यक्तित्व' की अभिव्यक्तियाँ हैं। (ऐसे ही 'व्यक्तित्व' की प्रस्तुति गजानन मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'दिमागी गुहांधकार का उरांग ओटान' में हुई है)। युंग की कथ्य शैली में, 'अचेतन' में उद्भूत प्रभुसत्ता के सम्मुख चैतन्य नपुंसक हो जाता है।
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== कुछ प्रसिद्ध दृष्टांत ==
(1) '''फीलिडा एक्स''' (बोरेक्स के
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(3) '''मेरी रेनाल्ड्स'''- यह प्रसिद्ध दृष्टांत है। रोगिणी 20 घंटे की निद्रा से जागने पर बच्चे जैसी बन गई। वह कुछ शब्दों के अतिरिक्त कुछ बोल भी न पाती थी। फिर से हर चीज़ की शिक्षा उसे दी जाने लगी। उदास की जगह प्रसन्न रहती थी। जंगली जानवरों से भी नहीं डरती थी। पाँच सप्ताह के बाद फिर वैसी की वैसी हो गई। पहले की कुछ याद न रही। इसके बाद लगातार 15-16 वर्षों तक थोड़े थोड़े दिनों की सामान्यतावस्था के अंतराल के साथ 'परिवर्तित व्यक्तित्व' की लंबी अवधियाँ आती रहीं। सबसे अंतिम रूप में यह अवस्था तब आई जब वह 36 वर्ष की थी। यह स्थिति लगातार 25 वर्ष यानी उसके अंतिम काल तक बनी रही। उसने अंतिम समय एकाएक सिरदर्द का अनुभव किया और 61 वर्ष की उम्र में वह इसी 'दूसरे व्यक्तित्व' में ही मर गई।
(4) '''
अब द्विव्यक्तित्व के कुछ सामान्य नियम सामने आते हैं-
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