"बुंदेली भाषा": अवतरणों में अंतर

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प्राचीन काल में बुंदेली में शासकीय पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में मिलते है. कहा तो यह‍ भी जाता है कि [[औरंगजेब]] और [[शिवाजी]] भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे. ठेठ बुंदेली का शब्दकोष भी हिंदी से अलग है और माना जाता है कि वह [[संस्कृत]] पर आधारित नहीं हैं. एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं. गीतो में प्रकृति के वर्णन के लिए, अकेली संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं. बुंदेली में वैविध्य है, इसमें [[बांदा]] का अक्खड़पन है और [[नरसिंहपुर]] की मधुरता भी है.
 
डॉ.डॉ॰ वीरेंद्र वर्मा ने हिंदी भाषा का इतिहास नामक ग्रंथ में लिखा है कि बुंदेली बुंदेलखंड की उपभाषा है. शुद्ध रुप में यह झांसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी तथा होशंगाबाद में बोली जाती है. इसके कई मिश्रित रुप दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, बालाघाट तथा छिंदवाड़ा के कुछ भागों में पाए जाते हैं.
 
== बुंदेली का इतिहास ==
वर्तमान बुंदेलखंड चेदि, दशार्ण एवं कारुष से जुड़ा था. यहां पर अनेक जनजातियां निवास करती थीं. इनमें कोल, निषाद, [[पुलिंद]], किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं. भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में इस बोली का उल्लेख प्राप्त है, शबर, भील, चांडाल, सजर, द्रविड़ोद्भवा, हीना वने वारणम् व विभाषा नाटकम् स्मृतम् से बनाफरी का अभिप्रेत है. संस्कृत भाषा के विद्रोहस्वरुप प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ. इनमें देशज शब्दों की बहुलता थी. हेमचंद्र सूरि ने पामरजनों में प्रचलित प्राकृत अपभ्रंश का व्याकरण दशवी शती में लिखा. मध्यदेशीय भाषा का विकास इस काल में हो रहा था. हेमचन्द्र के कोश में विंध्‍येली के अनेक शब्दों के निघंटु प्राप्त हैं.
 
बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने उक्ति व्यक्ति प्रकरण की रचना की. इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी ब्रज के अनेक शब्दों का उल्लेख मिलता है. इसी काल में अर्थात एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं. इसमें देशज शब्दों की बहुलता थी. पं.पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है. बुंदेली की माता प्राकृत शौरसेनी तथा पिता संस्कृत भाषा है. दोनों भाषाओं में जन्मने के उपरांत भी बुंदेली भाषा की अपनी चाल, अपनी प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है. हिंदी प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत के निकट है.
 
मध्‍यदेशीय भाषा का प्रभुत्व अविच्छन्न रुप से ईसा की प्रथम सहस्‍त्राब्दी के सारे काल में और इसके पूर्व कायम रहा. नाथ तथा नाग पंथों के सिद्धों ने जिस भाषा का प्रयोग किया, उसके स्वरुप अलग-अलग जनपदों में भिन्न भिन्न थे. वह देशज प्रधान लोकभाषा थी. इसके पूर्व भी भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणजनों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी. संभवतः चंदेल नरेश गंडदेव (सन् ९४० से ९९९ ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर (९९९ ई. से १०२५ ई.) के काल में बुंदेली के प्रारंभिक रूप में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय पंक्तियां लिखी गई. इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएं हैं.बुंदेली के आदि कवि के रुप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं.