"ब्रज शैलीगत क्षेत्र विस्तार की प्रथम स्थिति": अवतरणों में अंतर

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अवह शब्द का अर्थ अपभ्रंश से भिन्न नहीं है। अद्दहमाण ( १२ वीं शती ) ने चार भाषाओं का प्रयोग किया है -- अवहट्ठ, संस्कृत, प्राकृत और पैशाची। ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने छह भाषा और सात उपभाषाओं की सूची में "अवहट्ट' का भी परिगणन किया है। विद्यापति ( १४०६ ई.) ने इस शब्द का प्रयोग जनप्रिय भाषा के रुप में किया है। चाहे अवह शब्द में स्वयं कोई ऐसा संकेत न हो, जिसके आधार पर हम इसे शौरसेनी का परवर्ती रुप मानें, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि यह अपभ्रंश के विकास की परवर्ती भाषा का वाचक शब्द है, और यह भी स्पष्ट है कि यह सार्वजनीन रुप था। प्राकृत पैंगलम के टीकाकार ने इसे "आद्य भाषा' कहा है। यह उसी शैली का कथन है, जिसमें प्राकृत को कभी आदि भाषा कहा गया था। विद्यापति ने इसे देशी भाषा या लोग भाषा के समकक्ष रखा। कुछ कवि इसे "देशी' ही कहते हैं। यह वस्तुतः परिनिष्ठित संस्कृतप्राकृतमय अपभ्रंश शैली के प्रति एक जनप्रिय शैली की प्रतिक्रिया ही थी। वस्तु और शैली दोनों ही देश्यतत्त्वों से अभिमंडित होने लगीं।
 
क्षेत्र की दृष्टि से, यह शैली अत्यंत व्यापक प्रतीत होती है। अब्दुलरहमान मुलतान के थे। इस क्षेत्र की यह प्रचलित भाषा नहीं, अपितु यहाँ की कवि- प्रयुक्त शैली ही अवह थी। संदेशरासक की शैली रुढ़ और कृत्रिम साहित्यिक शैली है। किंतु दोहों की भाषा तो एकदम ही नवीन और लोकभाषा की ओर अतीव उन्मुख दिखाई पड़ती है। डॉ.डॉ॰ हरिवल्लभ भायाणी ने दोहों की भाषा हेमचंद्र के द्वारा उल्लिखित दोहों के समान या उससे भी अधिक अग्रसरीभूत भाषा- स्थिति से संबद्ध मानी है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि परिनिष्ठित शैली की संरचना को ग्रहण करके चलना चाहता है।
 
जिसमें संस्कृत और प्राकृत के उपकरण संग्रथित हैं। साथ ही वह बीच- बीच में ऐसे दोहों को अनुस्यूत कर देता है, जो लोकशैली में प्रचलित थे। इन प्रचलित दोहों की शैली का यह वैशिष्ट्य सदैव से प्रकट होता आ रहा था।
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== पिंगल : राजस्थान ==
 
डॉ.डॉ॰ चटर्जी के अनुसार अवह ही राजस्थान में पिंगल नाम से ख्यात थी। डॉ.डॉ॰ तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को पिंगल अपभ्रंश नाम दिया है। उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं। पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा- शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है। पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है। सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा। यह शब्द ब्रजभाषा- वाचक हो गया। गुरुगोविंदसिंह ( सं. १७२३- ६५ ) के विचित्र नाटक में भाषा पिंगल दी कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।
 
पिंगल और डिंगल दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं। डिंगल इससे कुछ भिन्न भाषा शैली थी। यह भी चारणों में ही विकसित हो रही थी। इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। पिंगल संभवतः डिंगल की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी और इस पर ब्रजभाषा का अधिक प्रभाव था। इस शैली को अवहट्ठ और राजस्थानी के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है। पृथ्वीराज रासो जैसी रचनाओं ने इस शैली का गौरव बढ़ाया।