"गिलगमेश": अवतरणों में अंतर
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गिलगमेश, संसार का प्राचीनतम वीरकाव्य होने के अतिरिक्त, मानव जाति की संभवत: प्रथम पुस्तक है। इसमें गिलगमेश नाम के उरूक के अति प्राचीन राजा के वीरोचित कार्यो का वृत्तांत संरक्षित है। उस परंपरा से ज्ञात होता है कि गिलगमेश ने उरूक पर कई साल तक घेरा डालकर उसे जीता था। पश्चात् वह वहीं निरंकुश होकर शासन करने लगा और तब देवताओं को बाध्य होकर एंकि-दू नाम के अर्धमानव अर्धपशु को उसके संहार के लिए भेजना पड़ा। गिलगमेश ने उसको जीतने के लिए एक आकर्षक नारी भेजी जिसने अपने कल छल से उसे जीत लिया। उस नारी से प्रभावित होकर वह गिलगमेश के दरबार में आया और दोनों मित्र हो गए। फिर दोनों ने एक साथ अनेक नगरों की विजय की और एक भयानक दैत्य की खोज में रेगिस्तान, बीहड़ और जंगल पार करते हुए वे उत्तर पश्चिम गए जहां उस दैत्य का संहार कर उन्होंने उसका गढ़ जीत लिया।
गिलगमेश का यह वीरकाव्य प्राचीन बाबुली कथानकों और साहित्यिक रचनाओं में सबसे मधुर, सबसे सुंदर है
पहली ईंट पर कथा का आरंभ होता है जिसमें गिलगमेश अर्ध पिशाच अर्ध मानुस पिता और देवी निन्सुन (लुगालबंदा की पत्नी) माता से उत्पन्न होकर अपनी प्रजा को निरंकुश शासन द्वारा पीड़ित करता है। उसकी उरूक की प्रजा तब रक्षा के लिए देवताओं से प्रार्थना करती है और देवता एंकि-दू नामक अद्भुत जीव को गिलगमेश के संहार के लिए भेजते हैं। पहले वह वन्य पशुओं के बीच आता है और उन्हीं में रमता है, यद्यपि उनकी तरह का वह नहीं है। रेगिस्तान के अहेरी तक गिलगमेश से उसके भयानक रूप का वर्णन करते हुए शिकायत करते हैं कि जब जब वे पशु पकड़ते हैं तब तब एंकि-दू जालगत जीवों को स्वतंत्र कर देता है। तब गिलगमेश उसके पास एक देवदासी भेजता है जो अपने हावभाव द्वारा उसे रिझाकर अपने वश में कर लेती है। दूसरी ईंट का पाठ है कि एंकि-दू को देवदासी रोटी खाना और सुरा पीना सिखाती है और उसे सभ्य बनाकर वह गिलगमेश के दरबार मेें ले जाती है जहाँ दोनों पहले द्वंद्व युद्ध करते हैं फिर एक दूसरे की शक्ति से प्रभावित होकर परस्पर आजीवन मैत्री के सूत्र में बँध जाते हैं। तीसरी ईंट के वृत्तांत के अनुसार दोनों मित्र सीरिया या लेवनान की ओर घने जंगलों के आक्रमण को जाते हैं। देवदारों के उस वन की हुवावा (या हुम्बाबा) नाम का भयानक दैत्य रक्षा करता है जिसकी गरज आँधी की तरह है, जिसका मुँह आग की लपटों की तरह है और जिसकी साँसमौत की साँस है। एंकि-दू उस भीषण दैत्य की बात सुनकर डर जाता है पर गिलगमेश उसे उत्साहित करता है और उरूक के वयोवृद्धों की चेतावनी की परवाह न कर दोनों दैत्य की खोज में निकल पड़ते हैं। चौथी ईंट में उनके राह के संकट झेलते देवदारों के वन तक पहुँच जाने का वृत्तांत है और पाँचवें में गिलगमेश अनेक स्वप्नों द्वारा आक्रांत होता है जिनकी व्याख्या एंकि-दू दैतत्य हुवावा (हउआ?) के नाश की ओर संकेत द्वारा करता है। गिलगमेश पर कृपा कर तब सूर्य दैत्य के विरूद्ध अपने आठ पवन भेजता है और गिलगमेश अंत में दैत्य का सिर काट लेता है। छठी ईंट के अनुसार दोनों विजयी वीर उरूक लौटते हैं। देवी इनिन्ना अब गिलगमेश के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करती है पर वह उसके पूर्वप्रेमियों के नाश की कथा की ओर संकेत कर उसका प्रणय अस्वीकार कर देता है। तब देवी खीझकर अपने पिता देवता अन से गिलगमेश के संहार के लिए दैवी साँड़ की सृष्टि के अर्थ प्रार्थना करती है। देवता साँड़ सिरज देता है जिसके गिलगमेश के नगर में आने से नागरिकों पर त्रास छा जाता है। अंत में एंकि-दू उसकी सींग पकड़कर उसे पटक देता है, फिर दोनों मित्र उसे मार डालते हैं और उसकी सींग काटकर लुगालबंदा के मंदिर में टाँग देते हैं। इस महान कृत्य के उपलक्ष्य में एक असाधारण भोज का आयेजन होता है पर रात एंकि-दू के लिये भयानक सपनों से भरी होती है।
सातवीं ईंट के अनुसार एंकि-दू सपने में देखता है कि देवता अपनी सभा में निश्चय करते हैं कि साँड़ के वध के फलस्वरूप उसे मार डाला जाए
विद्वानों का अनुमान है कि इस वीरकाव्य का नायकगिलगमेश उरूक का ऐतिहासिक राजा था जिसने दक्षिणी बाबुल पर 3000 ई. पू. से कुछ ही पहले राज किया था, जलप्रलय के कुछ ही सौ वर्ष बाद। गिलगमेश काव्य की कहानी सुमेरी है, यद्यपि वह लिखी अक्कादी या सामी काल में गई और जहाँ जहाँ कीलनुमा लिपि का प्रचार हुआ वहाँ वहाँ की विदेशी भाषाओं में भी वह लिख ली गई। जलप्रलय की कथा इसी काव्य का एक अंश है।
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