"श्रद्धाराम शर्मा": अवतरणों में अंतर

छो सन्दर्भ की स्थिति ठीक की।
छो बॉट: लाघव चिह्न (॰) का उचित प्रयोग।
पंक्ति 1:
{{आज का आलेख}}
{{ज्ञानसन्दूक लेखक
| नाम = पं.पं॰ श्रद्धाराम शर्मा
| चित्र = Shraddharam.jpg
| चित्र आकार = 200px
| चित्र शीर्षक = पं.पं॰ श्रद्धाराम शर्मा
| उपनाम =
| जन्मतारीख़ = [[१८३७]]
पंक्ति 32:
पं. श्रद्धाराम ने [[पंजाबी]] ([[गुरूमुखी]]) में 'सिक्खां दे राज दी विथियाँ' और 'पंजाबी बातचीत' जैसी पुस्तकें लिखीं। अपनी पहली ही किताब 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। इस पुस्तक मे [[सिख धर्म]] की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली [[आईसीएस]] (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।
 
उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उद्धरण देते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई। वे [[महाभारत]] का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। १८६५ में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही। पं.पं॰ श्रद्धाराम खुद ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और [[अमृतसर]] से लेकर [[लाहौर]] तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं.पं॰ श्रद्धाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं.पं॰ श्रद्धाराम ने पादरी के कहने पर [[बाइबिल]] के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं.पं॰ श्रद्धाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया।<ref name="हिन्दी मीडिया"/>
 
== विरासत ==
१८७० में उन्होंने "ओम जय जगदीश" की आरती की रचना की। प.पं॰ श्रद्धाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है। १८७७ में [[भाग्यवती उपन्यास|'''भाग्यवती''']] नामक एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (जिसे '''हिन्दी का पहला उपन्यास''' माना जाता है), इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल १८८७ में हिन्दी की मासिक पत्रिका [[प्रदीप]] में प्रकाशित हुई थी। पं.पं॰ श्रद्धाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ.डॉ॰ हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रद्धाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं.पं॰ श्रद्धाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार [[पं. रामचंद्र शुक्ल]] ने पं.पं॰ श्रद्धाराम शर्मा और [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रद्धाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है।
 
== रचनाएँ ==
पंक्ति 54:
== सन्दर्भ ग्रन्थ ==
* आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास;
* प्रो.प्रो॰ प्रीतम सिंह (संपादित) : सिक्खाँ दे राज दी विथिआ (हिंदी पब्लिशर्ज़ लिमिटेड, जालंधर, सन्‌ १९५६)
 
== बाह्य सूत्र ==