"जय सिंह द्वितीय": अवतरणों में अंतर
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[[File:1 Maharaja Sawai Jai Singh II ca 1725 Jaipur. British museum.jpg|thumb|ब्रिटिश संग्रहालय में महाराजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) का चित्र]]
[[बनारस |काशी ]], [[दिल्ली]], [[उज्जैन]], [[मथुरा]] और [[जयपुर]] में, अतुलनीय और अपने समय की सर्वाधिक सटीक गणनाओं के लिए जानी गयी [[वेधशाला]]ओं के निर्माता, [[सवाई जयसिह]] एक नीति-कुशल [[महाराजा]] और वीर सेनापति ही नहीं, जाने-माने [[खगोल]] [[वैज्ञानिक]] और विद्याव्यसनी विद्वान भी थे |<ref> 'भारत: एक खोज': पंडित [[जवाहर लाल नेहरु]] [ https://archive.org/details/DiscoveryOfIndia]</ref> उनका [[संस्कृत ]], [[मराठी]], [[तुर्की]], [[फ़ारसी]], [[अरबी]], आदि कई भाषाओं पर गंभीर अधिकार था| भारतीय ग्रंथों के अलावा [[गणित]], [[रेखागणित]], [[खगोल]], और [[ज्योतिष]] में उन्होंने अनेकानेक विदेशी ग्रंथों में वर्णित वैज्ञानिक पद्धतियों का विधिपूर्वक अध्ययन किया था और स्वयं परीक्षण के बाद, कुछ को अपनाया भी था। देश-विदेश से उन्होंने बड़े बड़े विद्वानों और खगोलशास्त्र के विषय-विशेषज्ञों को [[जयपुर]] बुलाया, सम्मानित किया और यहाँ सम्मान दे कर बसाया |<ref>
===सवाई की मौखिक-उपाधि===
अपने पिता [[महाराजा बिशन सिंह]] के असामयिक देहान्त के बाद २५ जनवरी [[१७००]] को ११ वर्ष की लगभग बाल्य-अवस्था में वे [[आमेर]] की गद्दी बैठे।<ref> 'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [
[[यदुनाथ सरकार]] ने अपने जयपुर इतिहास में इस 'उपाधि' के बारे में जो शब्द लिखे हैं- अविकल रूप से ये हैं-" The new Rajah also gained the title of ''Sawai'', which means 'one and a quarter', because Aurangzeb was so pleased with this youthful prince's feats before Khelna that he cried out," You are more than a man, you are ''sawa''- ''i.e.,''a hundred and twenty five per cent hero'<ref> Jadunath Sarkar : 'A History of Jaipur' : Orient BlackSwan : Extracts from chapter ' Sawai Jai Singh's Early Career' Page 149</ref>
कुछ दूसरे स्रोत बतलाते हैं 'सवाई' की उपाधि ([[औरंगजेब]] द्वारा नहीं) बल्कि बादशाह [[फर्रुख़ सियर]] [https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%BC_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%B01713-19] द्वारा इन्हें दी गयी थी|<ref>'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [
==जन्म और माता-पिता==
जयसिंह द्वितीय का जन्म [[मार्गशीर्ष]] वदी 7 वि० सं० १७४५ ई० [दिनांक 4 [[नवम्बर]], [[1688]]]<ref> Jadunath Sarkar : ' A History of Jaipur' page 149</ref> को [[राजा विष्णुसिंह]] की राठौड़ रानी, [[अजमेर]] में [[खरवा]] के ठाकुर केशरीसिंह की पुत्री इन्द्रकँवर से 3 नवम्बर [[1688]] को हुआ था।<ref> 'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [
[[File:Rajputana 1909.jpg|thumb|राजपूताना प्रान्त का एक पुराना मानचित्र]]
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महाराजा सवाई जयसिंह के दरबार में संस्कृत और [[ब्रजभाषा]] [[साहित्य]], [[स्थापत्य]], [[धर्मशास्त्र]], [[ज्योतिष]], [[खगोल]], [[इतिहास]]-लेखन, आदि क्षेत्रों में अनेक मौलिक रचनाएं की गयीं और सम्पूर्ण भारतीय मनीषा की इस अकादमिक-योगदान से बड़ी उन्नति हुई। अनेक नए धर्मशास्त्र भी रचे गये क्यों कि इनकी [[कर्मकांड]] और [[धर्मशास्त्र]] में बड़ी रुचि व निष्ठा थी। इनके समय के सबसे प्रसिद्ध विद्वान पंडित [[जगन्नाथ सम्राट]], पंडित[[ रत्नाकर पौण्डरीक | पुण्डरीक रत्नाकर]], [[विद्याधर चक्रवर्ती]], [[शिवानन्द गोस्वामी]], [[श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि]] आदि थे।<ref> कविशिरोमणि [[भट्ट मथुरानाथ शास्त्री]]: '[[जयपुर-वैभवम]]</ref>मूलतः आन्ध्र से आये तैलंग पूर्वजों के वंशज ब्रजनाथ भट्ट भी इनके समय के प्रसिद्ध कवि विद्वानों में से थे। इन्होंने 'ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति' और 'पद्मतरंगिणी' की रचना की। [[श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि]] ने इनके समय में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें मुख्य '[[ईश्वर विलास]]<ref> कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री: 'जयपुर-वैभवम</ref>- महाकाव्य भी है, जिसमें सवाई जयसिंह द्वारा '[[अश्वमेध यज्ञ]]' करवाने का 'आँखों देखा हाल' वर्णित है।<ref> संस्कृत के युग-पुरुष: मंजुनाथ': पृष्ठ 1 प्रकाशक: 'मंजुनाथ स्मृति संस्थान, सी-8, पृथ्वीराज रोड, जयपुर-302001</ref> जेम्स टॉड ने लिखा है " सवाई जयसिंह ने बहुत-सा धन खर्च कर के यज्ञशाला बनवाई थी और उसके स्तंभों और छत को चांदी के पत्तरों से मंडवाया था|<ref> 'राजस्थान का इतिहास' भाग-२ : लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड, पृष्ठ ११९ 'साहित्यागार' प्रकाशन, जयपुर</ref>
पुण्डरीक रत्नाकर (मृत्यु वि. १७७६ में) ने इनसे [[व्रात्यस्तोम यज्ञ]] चैत वदी ३ वि.सं. १७७१ को क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में करवाया। इन्होंने और दूसरे यज्ञ-जैसे [[श्रौत यज्ञ]] आदि भी सम्पन्न करवाये थे। इनका रचा हुआ 'जयसिंह कल्पद्रुम' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। रत्नाकर के पुत्र सुधाकर पौण्डरीक ने जयसिंह से [[पुरुषमेध यज्ञ]] करवाया था तथा 'साहित्यसार संग्रह' की रचना की। इन्होंने [[सम्राट यज्ञ]] भी कराया, जिसके पुरोहित इनके महाराष्ट्रीय ब्राह्मण गुरु, [[जगन्नाथ सम्राट]] थे। ''१७३४ ई० में जयसिंह ने जो पहला [[अश्वमेध यज्ञ]] किया''<ref> http://msmsmuseum.com/pages.php?id=4</ref>, २९ मई १७३४ को सम्पूर्ण हुआ।<ref>सवाई जयसिंह : राजेंद्र शंकर भट्ट: नेशनल बुक ट्रस्ट (अंग्रेज़ी अनुवाद: शैलेश कुमार झा) २००५ संस्करण</ref> इस अश्वमेध यज्ञ के समय, जो राजसी-घोड़ा छोड़ा गया था, उसे कुछ कुम्मणियों ने जलमहल से आगे, जयपुर के एक और प्रवेशद्वार ( जिसका नाम बाद में जोरावर सिंह गेट रखा गया) के पास ही पकड़ लिया और अन्त में जयसिंह के अश्व के साथ जा रहे सरदार जोरावर सिंह घोड़ा पकड़ने वालों से युद्ध करके मारे गये।<ref>
''दूसरा अश्वमेध यज्ञ बड़े पैमाने पर जयसिंह ने वर्ष १७४२ ई० में करवाया''। इन यज्ञों के अलावा जयपुर में [[पुरुषमेध यज्ञ]], [[सर्वमेध यज्ञ]], [[सोम यज्ञ]] आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण देश के पंडित-जगत में इनकी बड़ी ख्याति हुई तथा सम्पूर्ण हिन्दू-समाज ने इनकी इस सांस्कृतिक-पहल की प्रशंसा की।<ref> संस्कृत के युग-पुरुष: मंजुनाथ': प्रकाशक: 'मंजुनाथ स्मृति संस्थान, जयपुर-302001</ref>
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====कल्कि का प्राचीन मन्दिर====
[[चित्र:Kalki1790s.jpg|right|thumb|350px|कल्कि का ताम्रचित्र (१८वीं शती में निर्मित)]]
जयपुर (राजस्थान, भारत) की 'बड़ी चौपड़' से आमेर की ओर जाने वाली सड़क सिरेड्योढ़ी बाज़ार में [[हवामहल]] के लगभग सामने भगवान[[ कल्कि]] का प्राचीन मन्दिर अवस्थित है। जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने पुराणों में वर्णित कथा के आधार पर कल्कि के मन्दिर का निर्माण सन् 1739 ई. में दाक्षिणात-शिखर-शैली में कराया था। संस्कृत विद्वान आचार्य देवर्षि [[कलानाथ शास्त्री]] के अनुसार, "सवाई जयसिंह संसार के ऐसे पहले महाराजा रहे हैं, जिन्होंने जिस देवता का अभी तक अवतार हुआ नहीं, उसके बारे में कल्पना कर कल्कि की मूर्ति बनवाकर मन्दिर में स्थापित करायी।" सवाई जयसिंह के तत्काली दरबारी कवि [[श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि]] ने अपने ”कल्कि-काव्य“ में मन्दिर के निर्माण और औचित्य का वर्णन किया है| तद्नुसार ऐसा उल्लेख है कि सवाई जयसिंह ने अपने पौत्र ”कल्कि प्रसाद“ (सवाई ईश्वरी सिंह के पुत्र) जिसकी असमय मृत्यु हो गई थी, उसकी स्मृति में यह मन्दिर स्थापित कराया। यहाँ श्वेत अश्व की प्रतिमा संगमरमर में उत्कीर्ण है जो बहुत सुन्दर, आकर्षक और सम्मोहक है। अश्व के चबूतरे पर लगे बोर्ड पर यह इबारत अंकित है- ”अश्व श्री कल्कि महाराज-मान्यता- अश्व के बाएँ पैर में जो गड्ढा सा (घाव) है, जो स्वतः भर रहा है, उसके भरने पर ही कल्कि भगवान प्रकट होगें।“<ref>'जयपुर-दर्शन' सम्पादक : [
====[[जयगढ़]] का दुर्ग ====
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===समाज-सुधारक के रूप में सवाई जयसिंह===
सवाई जयसिंह ने सभी समाजों के लिए परंपरा संबंधी सुधार-कार्य किये। ब्राह्मण समाज में कई सुधार करते हुए वैरागी साधुओं में व्याप्त व्यभिचार मिटाने के लिए इन्होंने उनको पुनर्विवाह कर अपनी पत्नी साथ रखने (गृहस्थ आश्रम में प्रवेश) का विधान किया। बादशाह से फकीरों व सन्यासियों की मृत्यु के बाद, उनकी सम्पत्ति राज्य के पक्ष में जब्त नहीं करने की आज्ञा जारी करवाई, किन्तु सन्यासियों को 'निजी सम्पत्ति' रखने से रोका। बादशाह से अनुरोध के बाद हिन्दुओं पर लगाया गया पुराना भयंकर टैक्स [[जजिया कर]] समाप्त करवाया, ब्राह्मणों और राजपूतों के शादीब्याह आदि में हैसियत से बाहर जा कर दहेज़ देने और मृत्युभोज आदि सामाजिक अवसरों पर धन की बर्बादी रोकने की कोशिश भी की। जगह-जगह धर्मशालाएं, कई संस्कृत पाठशालाएं और विद्यालय खोले, विधवा-विवाह का पक्ष लिया, स्त्री-हत्या, कन्या-वध रोका, 'सर्वधर्म समभाव' की भावना को बढ़ावा दिया, विशेषतः जयपुर में [[जैन]] संप्रदाय को प्रोत्साहित किया, दिल्ली, आगरा, अन्य स्थानों से बड़े २ व्यापारियों को ला कर जयपुर में बसाया, देश में घूम-घूम कर विद्वानों की खोज की, उन्हें राज-सम्मान बक्शा, बड़ी २ जागीरें दीं और उत्तर भारत के समूचे हिन्दू-समाज को ऐसे कठिन वक़्त बाहरी आक्रान्ताओं से मुक्त रखा, जब राजनैतिक उठापटक, केंद्र में प्रशासनिक अराजकता और अनेक राजपूताना राज्यों के बीच सर-फुट्टवल अपने चरम पर थी|<ref> 'जयपुर-दर्शन' सम्पादक : [
===शासन-व्यवस्था===
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*[http ://books.google.co.in/books?isbn=8126718013]
*'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक :
*'संस्कृत-कल्पतरु' : संपादक : [[कलानाथ शास्त्री]] एवं घनश्याम गोस्वामी: '[[मंजुनाथ शोध संस्थान]]', सी-8, पृथ्वीराज रोड, सी-स्कीम, जयपुर-302001
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*[[यदुनाथ सरकार]] : A History of Jaipur : Orient BlackSwan : ISBN 978-81-250-3691-3
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*कविशिरोमणि [[भट्ट मथुरानाथ शास्त्री]]: '[[जयपुर-वैभवम]]'
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