"चर्यापद": अवतरणों में अंतर

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कालक्रम से महायान के स्वरूप में परिवर्तन हुए। प्राचीन अर्हतगण निर्वाण की प्राप्ति का चरम लक्ष्य मानते थे, लेकिन महायानियों ने बोधिसत्व के आदर्श को उच्च माना। महायानियों के अनुसार दु:ख से जर्जरित इस संसार के प्राणियों के लिये देह धारण कर करुणा का अवलंबन करना निर्वाण से श्रेयस्कर है। महायानी मानते हैं कि करुणा का आधार अद्वयबोध है। समस्त प्राणियों के साथ अपने को संपूर्ण रूप से एक समझना अद्वयबोध है। इस करुणा को महायानियों ने अपनी साधना, अपनी विचारधारा का मूलमंत्र स्वीकार किया। उनका कहना है कि अद्वय की स्थिति ही साधकों की काम्य है। इसमें सभी संकल्प विकल्प विलुप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में ज्ञातृत्व ज्ञेयत्व तथा ग्राकत्व ग्राह्मत्व का ज्ञान नहीं रह जाता। तांत्रिक बौद्धों ने निर्वाण का परम सुख कहा। उनके अनुसार 'महासुख' ही निर्वाण है। वे मानते थे कि विशेष साधनापद्धति द्वारा चित्त को महासुख में निमज्जित कर देना ही साधक का चरम लक्ष्य है। महासुख में निमिज्जित चित्त की स्थिति ही बोधिचित्त की प्राप्ति है। चित्त की यह वह स्थिति है जिसतें चित्त बोधिलाभ के उपयुक्त होकर तथा उसे प्राप्त कर सभी प्राणियों की मंगलसाधना में लग जाता है।
 
साधना की दृष्टि से अद्वय बोधिचित्त की दो धाराएँ हैं : प्रज्ञा और उपाय। शून्यताज्ञान को तांत्रिक बौद्ध साधकों ने 'प्रज्ञा' कहा है। यह निवृत्तिमूलक है और इसमें साधक का चित्त संसार का कल्याण करने की ओर अनुप्रेरित न होकर अपनी ही ओर लगा रहता है। करुणा को उन्होंने उपाय कहा है। यह प्रवृत्तिमूलक है और विश्वमंगल की साधना में नियोजित रहता है। इन दोनों के मिलन का 'प्रज्ञोपाय' कहा गया है। इन दोनों के मिलन से ही बोधिचित्त की प्राप्ति होती है। इन दोनों के मिलन की निम्नगा धारा ही सुख दु:खवाली त्रिगुणात्मिका सृष्टि है और उसकी ऊर्ध्वधारा का अनुसरण कर चलने में महासुख की प्राप्ति होती है। इसे 'सामरस्य' कहा गया है। शून्यता और करुणा परस्पर विरोधी धर्मवाली हैं, और स्वाभाविक रूप से निम्नगा हैं। इन दोनों का मध्यमार्ग में एक होकर प्रवाहित हाना ही 'समरस' हैं। जब ये ऊर्ध्वगामिनी होती हैं, 'समरस' की विशुद्धि होती है और इनकी ऊर्ध्वतम अवस्थिति ही विशुद्ध सामरस्य हैं। इस सामरस्य का पूर्णतम रूप ही सहजानंद है। यही अद्वयबोधिचित्त है। इसी को प्राप्त करने की साधना सहजिया बौद्धधर्म का चरम लक्ष्य है।
 
इस आनंद को माध्यमिकों ने तत्व माना है लेकिन बौद्ध सहजिया साधकों ने इसे रूप तथा नाम प्रदान किया है और इसका वासस्थान भी बतलाया है। उन्होंने इसे नैरात्मा देवी तथा परिशुद्धावधूतिका कहा है। इसे शून्यता की सहचारिणी कहा गया है। साधक जब पार्थिव माया मोह से शून्य हो जाता है और धर्मकाय (तथता अर्थात्‌ शून्यता) में लीन हो जाता है, वह मानो नैरात्मा का आलिंगन किए हुए महाशून्य में गोता लगाता है। नैरात्मा इंद्रियग्राह्य नही, इसीलिये एक पद में उसे अस्पृश्य डोंबी कहा गया है और कहा गया है कि नगर के बाहर अर्थात्‌ देहसुमेरु के शिखरप्रदेश अर्थात्‌ उष्णीषकमल में उसका वासस्थान है:
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:;छोइ छोइ जाइ सो बाह्य नाड़िआ।।
 
यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक है कि हिंदू तंत्र की तरह बौद्धतंत्र में भी शरीर के भीतर ही साधक उस अशरीरी को पाने की साधना करते हैं। इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना को बौद्धतंत्र में क्रमश: ललना, रसना और अवधूती या अवधूतिका कहा गया है। अवधूतो ही मध्य मार्ग हैं जिससे होकर अद्वयबोधिचित्त या सहाजनंद की प्राप्ति होती है। मूलाधार बौद्धतंत्र का वज्रागार है और सहस्रार के जैसा 64 दलों का उष्णीष कमल है, जिसमें आनंद का आस्वादन होता है।
 
चर्यापदों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के लिये और भी नाम प्रयुक्त हुए हैं, जैसे इड़ा के लिये प्रज्ञा, ललना, वामगा, शून्यता, विंदु, निवृत्ति, ग्राहक, वज्र, कुलिश, आलि (अकारादि स्वरवर्ण), गंगा, चंद्र, रात्रि, प्रण, चमन, ए, भव आदि; पिंगला के लिये उपाय, रसना, दक्षिणगा करुणा, नाद, प्रवृत्ति, ग्राह्य, पद्म, कमल, कालि (काकारादि व्यंजनवर्ण), यमुना, सूर्य दिवा, अपान, धमन, वं, निर्वाण, आदि। चर्यापद के अध्ययन के लिये इनकी जानकारी आवश्यक है।