"महाराजा जसवंत सिंह (मारवाड़)": अवतरणों में अंतर

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'''महाराजा जसवंत सिंह''' (26 दिसम्बर 1629 – 28 दिसम्बर 1678) [[मारवाड़]] के शासक थे। वे राठौर राजपूत थे। वे एक अच्छे लेखक न्ही थे जिन्होने 'सिद्धान्त-बोध', 'आनन्दविलास' तथा 'भाषाभूषण' नामक ग्रंथों की रचना की।
 
== परिचय ==
[[जोधपुर]] के महाराज [[गजसिंह]] के तीन पुत्र थे- अमरसिंह, जसवंतसिंह और अचलसिंह। अचलसिंह का देहांत बचपन में ही हो गया। अमरसिंह वीर किंतु बहुत क्रोधी थे इसलिये गजसिंह ने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह की ही गद्दी के उपयुक्त समझा। २५ मई, १६३८ के दिन बारह बरस का जसवंत गद्दी पर बैठा।
 
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महाराजा जसवंतसिंह वीर ही नहीं दानशील और विद्यानुरागी भी था। उसके रचित ग्रंथों में भाषाभूषण, अपरीक्षसिद्धांत, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिद्धांतबोध, सिद्धांतसार और प्रबोधचंद्रोदय आदि प्रसिद्ध हैं। [[सूरतमिश्र]], [[नरहरिदास]], और [[नवीनकवि]] उसकी सभा के रत्न थे। जसवंतसिंह का हृदय हिंदुत्व के प्रेम से परिपूर्ण था और उसके सदुद्योग और निरुद्योग से भी हिंदू राजाओं को पर्याप्त सहायता मिली। औरंगजेब भी इस बात स अपरिति न था। यह प्रसिद्ध है कि उसके मरने पर बादशाह ने कहा था, 'आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया'। जसंवतसिंह के लिये हिंदूमात्र के हृदय में सम्मान था और इसी कारण जब औरंगजेब ने उसकी मृत्यु के बाद जोधपुर को हथियाने और कुमारों को मुसलमान बनाने का प्रयत्न किया तो समस्त [[राजस्थान]] में विद्वेषाग्नि भड़क उठी और राजपूत युद्ध का आरंभ हो गया।
 
== हिन्दू धर्म का विरोध नहीं कर पाए थे औरंगजेब ==
जोधपुर के राजा जसवंत सिंह ने अपने शासन काल के दौरान कई युद्धों में दिल्ली के बादशाह शाहजहां और औरंगजेब का साथ दिया। इसमें उन्होंने सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया। हालांकि, जब तक जसवंत सिंह जीवित थे, तब तक औरंगजेब मंदिर तोडऩा तो दूर जजिया कर (एक तरह का धार्मिक कर) भी नहीं ले पाए थे। लेकिन जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने राजस्थान पर आक्रमण करना और अपना प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया। शायद यही वजह थी कि जसवंत सिंह के जीवित रहते औरंगजेब कभी सफल नहीं हो सका। 28 नवम्बर, 1678 को काबुल में जसवंत सिंह के निधन का समाचार जब औरंगजेब ने सुना, तब उसने कहा, "आज धर्म विरोध का द्वार टूट गया है"।<ref>http://www.bhaskar.com/article/c-10-1556794-NOR.html?HFL-4=</ref>
 
== जिस बालक ने सेना के ऊंटों के काटे थे सिर, उसे को बनाया अंगरक्षक ==
ये वही जसवंत सिंह थे, जिन्होंने एक वीर व निडर बालक द्वारा जोधपुर सेना के ऊंटों की व उन्हें चराने वालों की गर्दन काटने पर सजा के बदले उस वीर बालक की स्पष्टवादिता, वीरता और निडरता देख उसे सम्मान के साथ अपना अंगरक्षक बनाया और बाद में अपना सेनापति भी। यह बालक कोई और नहीं, इतिहास में वीर के साथ स्वामिभक्त के रूप में प्रसिद्ध वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ था।<ref>http://www.bhaskar.com/article/c-10-1556794-NOR.html?HFL-4=</ref>
 
== महाराजा की तरह आन-बान की पक्की थी रानी ==
जसवंत सिंह वीर पुरुष थे। ठीक उसी तरह हाड़ी रानी भी आन-बान की पक्की थी। हाड़ी रानी बूंदी के शासक शत्रुशाला हाड़ा की पुत्री थी। 1657 में शाहजहां के बीमार पड़ने पर उसके पुत्रों ने दिल्ली की बादशाहत के लिए विद्रोह कर दिया। उनमें एक पुत्र औरंगजेब का विद्रोह दबाने हेतु शाहजहां ने जसवंत सिंह को मुगल सेनापति कासिम खां सहित भेजा। उज्जैन से 15 मील दूर धनपत के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन धूर्त और कूटनीति में माहिर औरंगजेब की कूटनीति के चलते मुगल सेनापति कासिम खां सहित 15 अन्य मुगल अमीर भी औरंगजेब से मिल गए। राजपूत सरदारों ने शाही सेना के मुस्लिम अफसरों के औरंगजेब से मिलने व मराठा सैनिकों के भी भाग जाने के चलते यह तय किया कि कई सेनाओं को वापिस भेजा जाएगा। युद्ध की भयंकरता व परिस्थितियों को देखकर घायल हो चुके महाराज जसवंत सिंह जी को जबरदस्ती घोड़े पर बिठा 600 राजपूत सैनिकों के साथ जोधपुर रवाना कर दिया और उनके स्थान पर रतलाम नरेश रतन सिंह को अपना नायक नियुक्त कर औरंगजेब के साथ युद्ध करने लगे। इस युद्ध में इन सभी को वीरगति प्राप्त हुई। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई।<ref>http://www.bhaskar.com/article/c-10-1556794-NOR.html?HFL-4=</ref>
 
== रानी ने लगाई महाराजा को फटकार, कहा, क्यूं आए आप महल में ==
महाराजा जसवंत सिंह के जोधपुर पहुंचने की खबर जब किलेदारों ने महारानी को दी, तो महारानी हैरान रह गईं। किलेदारों ने महाराज के स्वागत की तैयारियों का अनुरोध किया, लेकिन महारानी ने सेवकों को किले के दरवाजे बंद करने के आदेश दे दिए। साथ ही, अपने पति महाराज जसवंत सिंह को कहला भेजा कि युद्ध से हारकर जीवित आए राजा के लिए किले में कोई जगह नहीं होती। अपनी सास राजमाता से कहा कि आपके पुत्र ने यदि युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया होता तो मुझे गर्व होता और मैं अपने आप को धन्य समझती। लेकिन आपके पुत्र ने तो पूरे राठौड़ वंश के साथ-साथ मेरे हाड़ा वंश को भी कलंकित कर दिया। आखिर महाराजा द्वारा रानी को विश्वास दिलाने के बाद कि मैं युद्ध से कायर की तरह भाग कर नहीं आया, बल्कि मैं तो सैन्य-संसाधन जुटाने आया हूं। रानी ने किले के दरवाजे खुलवाए।<ref>http://www.bhaskar.com/article/c-10-1556794-NOR.html?HFL-4=</ref>
 
== लकड़ी के बर्तनों में परोसा खाना ==
रानी ने महाराजा को चांदी के बर्तनों की बजाय लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा और महाराजा द्वारा कारण पूछने पर बताया कि कही बर्तनों के टकराने की आवाज को आप तलवारों की खनखनाहट समझकर डर न जाए, इसलिए आपको लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा गया है। रानी के व्यंग्य बाण रूपी शब्दों को सुनकर महाराज को अपनी रानी पर बड़ा गर्व हुआ और वह फिर से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने लगे।<ref>http://www.bhaskar.com/article/c-10-1556794-NOR.html?HFL-4=</ref>
== सन्दर्भ ==
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== इन्हें भी देखें==
== बाहरी कड़ियाँ==