"चित्रकला": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
चित्रविद्या सीखने के लिये पहले प्रत्येक प्रकार की सीधी टेढ़ी, वक्र आदि रेखाएँ खींचने का अभ्यास करना चाहिए। इसके उपरांत रेखाओं के ही द्वारा वस्तुओं के स्थूल ढाँचे बनाने चाहिए। इस विद्या में दूरी आदि के सिद्धांत का पूरा अनुशीलन किए बिना निपूणता नहीं प्राप्त हो सकती। दृष्टि के समानांतर या ऊपर नीचे के विस्तार का अंकन तो सहज है, पर आँखों के ठीक सामने दूर तक गया हुआ विस्तार अंकित करना कठिन विषय है। इस प्रकार की दूरी का विस्तार प्रदर्शित करने की क्रिया को 'पर्सपेक्टिव' (Perspective) कहते हैं। किसी नगर की दूर तक सामने गई हुई सड़क, सामने को बही हुई नदी आदि के दृश्य बिना इसके सिद्धांतों को जाने नहीं दिखाए जा सकते। किस प्रकार निकट के पदार्थ बड़े और साफ दिखाई पड़ते हैं, और दूर के पदार्थ क्रमशः छोटे और धुँधले होते जाते हैं, ये सब बातें अंकित करनी पड़ती हैं। उदाहरण के लिये दूर पर रखा हुआ एक चौखूँटा संदूक लीजिए। मान लीजिए कि आप उसे एक ऐसे किनारे से देख रहे हैं जहाँ से उसके दो पार्श्व या तीन कोण दिखाई पड़ते हैं। अब चित्र बनाने के निमित्त हम एक पेंसिल आँखों के समानांतर लेकर एक आँख दबाकर देखेंगे तो संदूक की सबके निकटस्थ खड़ी कोणरेखा (ऊँचाई) सबसे बड़ी दिखाई देगी; जो पार्श्व अधिक सामने रहेगा, उसके दूसरे ओर की कोणरेखा उससे छोटी और जो पार्श्व कम दिखाई देगा, उसके दूसरे ओर की कोणरेखा सबसे छोटी दिखाई पड़ेगी। अर्थात् निकटस्थ कोण रेखा से लगा हुआ उस पार्श्व का कोण जो कम दिखाई देता है, अधिक दिखाई पड़नेवाले पार्श्व के कोण से छोटा होगा। दूसरा सिद्धांत आलोक और छाया का है जिसके बिना सजीवता नहीं आ सकती। पदार्थ का जो अंश निकट और सामने रहेगा वह खुलता (आलोकित) और स्पष्ट होगा; और जो दूर या बगल में पड़ेगा, वह स्पष्ट ओर कालिमा लिए होगा। पदार्थोंका उभार और गहराई आदि भी इसी आलोक और छाया के नियमानुसार दिकाई जाती है। जो अंश उठा या उभरा होगा, वह अधिक खुलता होगा, और जो धँसा या गहरा होगा वह कुछ स्याही लिए होगा। इन्हीं सिद्धांतों को न जानने के कारण बाजारू चित्रकार शीशे आदि पर जो चित्र बनाते हैं वे खेलवाड़ से जान पड़ते हैं। चित्रों में रंग एक प्रकार की कूँची से भरा जाता है जिसे चित्रकार कलम कहते हैं। पहले यहाँ [[गिलहरी]] की पूँछ के बालों की कलम बनती थी। अब विलायती ब्रुश काम में आते हैं।
 
== इन्हें भी देखें ==