"छपाई (वस्त्रों की)": अवतरणों में अंतर

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आज से कोई सौ वर्ष पूर्व, प्राकृतिक रंगां को ही रंगाई या छपाई के काम में लाया जाता था। ये रंग वानस्पतिक, जांतव अथवा खनिज स्रोतों से उपलब्ध होते थे। हल्के या गाढ़े विलयनों में विभिन्न रंगस्थापक (mordants) का प्रयोग कर इंद्रधनुष के सभी वर्ण प्राप्त कर लिए जाते थे। विज्ञान के विकास के साथ-साथ कृत्रिम रंगों का भी उत्थान हुआ। प्राकृतिक रंगों को अब लोग भूल गए। रँगाई और छपाई में प्रयुक्त रगों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है : एक रँगाई की प्रणाली के आधार पर और दूसरा रंगों में रासायनिक संघटनों के आधार पर। पहले वर्गीकरण से इस बात का पता लगता है कि रंग विशेष की बंधुता (affinity) रेशे रेशे के अनुसार होती है और दूसरे से रंगप्रदत्त वर्ण की दशा - कच्चा, पक्का, चमकीला और लाल, पीला, नीला आदि - निश्चित होती है।
 
रँगाई हो या छपाई, रंगत लाने के लिये कुछ बातें ध्यान में रखना आवश्यक है, जैसे रंग को लिए दशा में उपस्थित करना, उसको किसी उचित माध्यम द्वारा रेशे या कपड़े के संपर्क में लाना अदि। रँगाई में पानी और छपाई में माड़ी (thickening) तथा रंगवाहक उपयुक्त हेते हैं। रंग रेशे के अंदर प्रवेश करे, इसके लिए गरमी या भाप देना अथवा कुछ और सहायक क्रियाएँ भी करनी पड़ती हैं, जोरंग की जाति पर निर्भर करती हैं। प्रत्येक रंग को विलेय बनाने के लिये, उसके अनुरूप उचित रसायन को पानी के साथ मिलाकर फेंटना, चलाना, गरम करना, उबालना और कभी ठंडा करना पड़ता है। आवश्यक वस्तुएँ मिलाकर, झीने कपड़े से छानकर यंत्रों द्वारा छपाई की जाती है। भाप, और नमी के संयोग से रंग विषयक क्रियाएँ सक्रिय हो जाती हैं और इस प्रकार रेशे पर रंग चढ़ता जाता है। छापने के पूर्व कपड़े को धोकर तैयार करना आवश्यक है, नहीं तो कपड़ा रंग नहीं पकड़ता। छपाई के अंत में सुखाकर, रंग उड़ाने के लिए अवकरण, आक्सीकरण इत्यादि यथोचित क्रियाएँ भी करनी पड़ती हैं। सबसे पीछे उबलते साबुन के पानी से धोकर माड़ी, अनावश्यक मसाले और निष्क्रिय रंग निकाल दिए जाते हैं। तब कपड़ा सुखाया और परिसज्जित किया जाता है।
 
माड़ी लसदार होती है, जो अन्य मसालों सहित रंग को बाँध कर रखती है। इस कार्य के लिए बबूल या अन्य गोंद, गेहूँ का आटा या स्टार्च, मकई का स्टार्च, और ब्रिटिश गम आदि लसदार पदार्थ पानी के साथ पकाकर काम में लाए जाते हैं। अल्शियन (Alcian) रंगों के साथ गोंद वर्जित है। इनके सथ मैदे का प्रोग करना चाहिए; वर्णक रंगों (pigment colours) के साथ ऐक्रापान ए (Acrapon, A,) पायस मांड (emulsion thickening) अधिक उपयुक्त सिद्ध हुआ है। अभिक्रियाशील रंजकों का व्यवहार कते समय सोडियम ऐल्जिनेट (sodium alginate) की माड़ी अधिक उपयुक्त होती है।
 
छपाई के पहले कपड़े की तैयारी के लिए विरंजन (bleaching) से पहले कुछ क्रियाएँ की जाती हैं। इनमें रोम दहन (singeing) करके कपड़े के उभरे हुए रोएँ, बेकार चिपटे हुए तागे आदि जलाकर नष्ट कर किए जाते हैं। यह क्रिया कपड़े के एक या दोनों और, एक बार में या दो बार में, की जा सकती है। इसके साधन प्लेट सिंजिंग (platesingeing), रोलर (roller) सिंजिंग और गैस फ्लेम (gasflame) सिंजिंग हैं। इनमें स किस एक या दो का व्यवहार श्रृंखला में किया जा सकता है। इन तीनों क्रियाओं में गैस फ्लेम सिंजिंग अधिक उपयोगी पाया गया है और आजकल मिलों में इसी का विशेष चलन है। रोमदहन के पश्चात्, इनमें, ताने पर लगाई गई माड़ी काटने (desize) की क्रिया भी करनी पड़ती है। माड़ी सड़ाकर निकाली जाती है। केवल पानी, नमकीन पानी, या अम्लीय पानी में माल को चौबीस घंटे भिगोकर रखने से माड़ी सड़ाकर निकाली जाती है। केवल पानी, नमकीन पानी, या अम्लीय पानी में माल को चैबीस घंटे भिगोकर रखने से माड़ी सड़ जाती है, किंतु इस क्रिया में समय अधिक लगता है और कार्य की दक्षता भी अनिश्चित रहती है। इसलिए आजकल सड़न उत्पन्न करनवाले कृत्रिम प्रकिरण पदार्थ काम में लाए जाते हैं। ये वानस्पतिक और जांतव दोनों प्रकार के हाते हैं। इनके हल्के विलयन में माल यको डाल देने से माड़ी शीघ्रातिशीघ्र सड़कर विलय हो जाती और सरलतापूर्वक गरम पानी से धोकर निकाली जा सकती है। आई.सी.आई. कंपनी द्वारा प्रस्तुत डिकैटेज़ (Decatase) और सीबा कंपनी का रैपिडेज़ (Rapidase) ऐसे ही पदार्थ हैं।
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== स्टेंसिल की छपाई (Stencil Printing) ==
कागज के ऊपर चित्र बनाकर बच्चे उसे इस प्रकार काटते हैं कि चित्र के छिद्रों से ब्रश द्वारा रंग डाला जाए तो नीचे रखे दूसरे कागज या कपड़े पर वैसा ही चित्र बन जाए। इस कला को स्टेंसिल काटना और इस प्रकार की छपाई को स्टेंसिल की छपाई कहते हैं। कागज़ को स्टेंसिल टिकाऊ नहीं होती, अत: ताँबे की स्टेंसिल का कपड़े की छपाई में उपयोग होता है। ब्रश की जगह एअरोग्राफ गन (aerograph gun) का उपयोग किया जाता है। इस यंत्र में मुख्य दो अंग होते हैं। एक रंग प्याली (colour cup) होती है, दूसरी वायुनलिका, जिससे दबावयुक्त वायु (air under pressure) आती है। जब लिबलिबी (trigger) को दबाया जाता है, हवा आगे बढ़कर रसते हुए रंग पेस्ट से मिलती है और एक बारीक तुंड (nozzle) से फुहारे के रूप में रंग के साथ स्टेंसिल के ऊपर पड़ती है, और चित्र के छिद्रों से होकर कपड़े पर तत्सम चित्र बनाती है। एक एक चित्र में दस बारह रंग तक सरलतापूर्वक लगाए जा सकते हैं। इस साधन की यह विशेषता है कि इसमें रंग की आभा (shade) हल्की से हल्की और गहरी से गहरी की जा सकती है। एक कलाकार के हाथों इस विधि द्वारा रंगों की जो अलंकारिता लाई जा सकती है वह असीम है। इसके चित्रित फूलों पर मधुमक्खी या भ्रमर तक सरलता से बनाए जा सकते हैं। परंतु उत्पादन अत्यंत कम होने से स्टेंसिल की छपाई कार्यविशेष के लिए ही सीमित है।
 
== स्क्रीन की छपाई (Screen Printing) ==
स्टेंसिल का विकसित रूप स्क्रीन है। स्क्रीन जाली (gauze) से बनाई जाती है। रेशम का कपड़ा (silk cloth), अरंगडी (organdie), ताँबे के तारों की जाली, आधुनिक टेरिलीन (terylene) या नाइलॉन (nylon) का कपड़ा इत्यादि स्क्रीन बनाने में प्रयुक्त होते हैं। कुछ रंगों के पेस्ट में दाहक सोडा पड़ता है, जिससे रेशम का कपड़ा धीरे-धीरे गल जाता है। ऐसी दशा में रेश्म का कपड़ा अनुपयुक्त होता है। जाली या कपड़े की लकड़ी के आयताकार साँचे में खींचकर लगाया जाता है। लकड़ी की छोटी छोटी खपच्चियों को लगाकर चारों ओर खाँचे में अच्छी तरह कस दिया जाता है। इस आयत की दीवार लगभग तीन इंच ऊँची, आधी इंच मोटी और छह इंच लंबी होती है। आयत की चौड़ाई चार फुट के लगभग हो सकती है। अभिकल्प को जाली पर राल वार्निश्, या सेलूलोज़ लाक्षारस (cellulose lacquer) से इस प्रकार बनाया जाता है कि जहाँ चित्र हो वहाँ लाक्षारस न लगने पाए और शेष सब स्थान लाक्षारस से भर जाएँ। इस प्रकार बनाई स्क्रीन पर जब रंग डालकर, रबर के निपीड़क (squezee) से रंग आगे पीछे खींचा जाएगा, तब रंग चित्रित स्थानों को पारकर कपड़े पर पहुँच जाएगा। इस प्रकार स्क्रीन की छपाई की जाती है। निपीड़क आध इंच मोटे, दो इंच चौड़े और अभिकल्प की चौड़ाई के अनुसार दो फुट लंबे इंडिया रंबर के खंड को लकड़ी के खाँचेदार तीन इंच मोटे, और दो फुट लंबे हत्थे में जमा कर बनाया जाता है। ठप्पे की छपाई के लिए बनाए गए नियमों के अनुसार स्टेंसिल और स्क्रीन में भी कपड़ा मेज के ऊपर बिछाया जाता है। मेज की लंबाई स्क्रीन में 100 गज तक तथा चौड़ाई कपड़े की चौड़ाई से कुछ अधिक रखी जाती है। यह मेज छपाई धुलाई की सुविधा के लिए एक ओर को कुछ ढलुवाँ होती है। जहाँ गरमी देने का साधन है वहाँ मेज का ऊपरी तल धातु का, जैसे जस्ते की चादर का, होता है। कहीं कहीं आजकल सीमेंट का भी उपयोग होता है। कपड़े को स्थिर रखने के लिए ऊपर मोम लगा दिया जाता है। इस दश में मेज के ऊपर बेठन (कंबल, बैक ग्रे आदि) न भी रहे तो कोई असुविधा नहीं होती। मेज पर और स्क्रीन की लकड़ी में सानुपातिक खाँचे (catch points) बने होते हैं जिससे अभिकल्प दोबारा रखने (repeat) अर्थात् लगाने में आसानी पड़े। भारतीय कपड़े की मिलों में, विशेषकर जहाँ कृत्रिम रेशम या रेयन बनता है, इस पद्धति से छपाई बड़े पैमाने पर होती है। स्क्रीन का उपयोग रेशम की छपाई में इसलिए अधिक मान्य है, क्योंकि रोलर प्रिंटिंग मशीन पर सुविधापूर्वक उसे नहीं छापा जा सकता। कपड़े का रूप भी कुछ बिगड़ जाता है। अहमदाबाद, मुंबई और वाराणसी में स्क्रीन की छपाई घरेलू धंधों के रूप में भी काफी प्रचलित है। जापान और स्विट्जरलैंड तो इसके केंद्र ही हैं।
 
स्क्रीन की छपाई का विकास अभी थोड़े दिन पूर्व ही हुआ है, परंतु जो उन्नति छपाई के इस साधन की हुई है वह सराहनीय है। इस कला के संरक्षक इसे रोलन प्रिंटिग से भी अधिक लोकप्रिय बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। परंतु फिर भी अभी इसका उत्पादनव्यय रोलर छपाई की अपेक्षा अधिक पड़ता है। यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि अलंकारिता की दृष्टि से यह कहीं आगे बढ़ गई है और कुछ विशिष्ट अभिकल्पों के लिए, जैसे गलीचे आदि की छपाई (panel printing) में, अपना जोड़ नहीं रखती।
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=== प्रतिरोध (Resist) छपाई ===
कटाव में कपड़े को रंगकर तब उसका रंग काटा जाता है, किंतु प्रतिरोध प्रथा में कपड़े पर प्रतिरोधी (resisting agent) पहले ही लगा लिया जाता है, तब सुखाने के बाद रँगाई की जाती है। प्रतिरोधी लगे स्थलों पर रंग नहीं चढ़ता शेष सब कपड़ा भली प्रकार रँग जाता है। प्रतिरोधी में रंग मिलाकर चित्रित किया जाए, तत्पश्चात् रँगाई की जाए, तो रंगीन प्रतिरोधन प्राप्त होगा। ये प्रतिरोधन दो प्रकार के होते हैं- एक तो यांत्रिक, जो अपरिवर्तित भौतिक रूप से बिना किसी परिवर्तन के काम करते हैं, जैसे मोम, रेजिन, चीनी मिट्टी, जिंक ऑक्साइड, चर्बी, सीस, बेरिय सल्फेट आदि। वातिक और बंधनी की छपाई इसी श्रेणी में आती है, परंतु इन पदार्थों को रासायनिक प्रतिरोधकों के साथ भी मिलाते हैं, जिससे सक्रिय रंजक तत्व कपड़े तक न पहुँच सकें। दूसरे रासायनिक द्रव्य, जो क्रियाकलाप के बीच ऐसी दशा उत्पन्न कर देते हैं कि रँगाई के समय योग लगे स्थलों पर कपड़ा रंग नहीं पकड़ता, तथा बिलकुल श्वेत रहता है। रासायनिक प्रतिरोधी चार प्रकार के होते हैं : (1) अवकारक, जैसे सोडियम या पोटाशियम सल्फाइट, सोडियम या पोटशियम बाइसल्फाइट, स्टैनस क्लोराइड, हाइड्रोसल्फाइट और फार्मोसल आदि, (2) आक्सीकारक, जैसे तूतिया, ऐमोनियम क्लोरेट, सोडा बाईक्रोमेट, सोडियम क्लोरेट, ऐमोनियम वैनेडेट आदि, (3) क्षार, जैसे दाहक सोडा, ऐश, और पोटासियम कार्बोनेट आदि, (4) अम्ल जैसे साइट्रिक, टैनिक, टार्टरिक और काक्ज़ैलिक अम्ल आदि। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे धातुलवण भी होते हैं जो भाप में विघटित होकर अम्ल देते हैं। इन्हें भी लिया जा सकता है। प्रतिरोधियों को लगाकर सुखाना चाहिए। यदि प्रतिरोधी श्वेत (white resist) है, तो कपड़े को सुखाकर पैडिंग (padding) द्वारा इस प्रकार रंगते हैं कि कपड़ा केवल दोनों बेलनों के बीच से जाता है, कक्ष से नहीं और नीचेवाले रोलर पर एक कपड़ा लपेट दिया जाता है।
 
ऐनिलीन (Aniline) वाले माल को भाप सेवन (ageing) कराकर, साधारण आक्सीकरण के बाद पानी, साबुन आदि से स्वच्छ किया जाता है। जब प्रतिरोधी में वैट रंग मिला हो, तब छपाई के बाद उसे भाप देकर स्थायी कर लेना चाहिए। तत्पश्चात् यदि तल ऐनिलीन के काले रंग का हो, तो उसके अनुसार रँगाई पात्र में योगों के साथ पैडिंग आदि करके अन्य क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इसी प्रकार अन्य रंगों की श्वेत अथवा रंगीन प्रतिरोध छपाई की जाती है। प्रतिरोधी का उपयोग रंजक वर्ग और उसके गुणधर्मानुसार किया जाता है।
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=== बातिक (Batik) ===
अनुमानत: यह संस्कृत शब्द "वार्तिक" से बना है, जिसका अर्थ बत्ती होता है। इस क्रिया में प्रयुक्त मोमबत्ती के आधार पर इसका यह नाम पड़ा है। मोम लगाकर कपड़े को बत्ती की भॉति लपेट कर रंगाई के लिए झुर्रियाँ (cracks) डाली जाती हैं। संभवत: प्रारंभ में यह कला दक्षिण भारत के समुद्री तटों पर प्रचलित थी। वहीं से पूर्वी देशों - जावा, सुमात्रा की ओर जाकर उन देशों की मुख्य छपाई कला हो गई। अब इसका प्रचार हमारे देश में नहीं है। शांतिनिकेतन के कुछ कलाकार कला के रूप में इसे प्रदर्शित करते हैं। व्यापारिक वस्त्र छपकर जावा में ही तैयार होता है, भारत में नहीं। इस प्रथा से छपा हुआ कपड़ा बड़ा आकर्षक, सुंदर, उसकी अलंकारिता अत्यंत जटिल, विचित्र और अनेक रंगों से युक्त होती है। इसकी छपाई में अधिक समय और अनुभव एवं कार्यदक्षता की विशेष आवश्यकता होती है। जावा और अन्य पूर्वी देशों में इस प्रकार के कपड़े उत्सवों और विशेष अवसरों पर पहनने का चलन है। 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दी में इसका विकास अधिक हुआ तथा यह चीन, जापान, इंडोचीन, और पश्चिम में हालैंड, जर्मनी एवं फ्रांस तक में फैल गया था। अंत में बेलन छपाई के सामने यह कला टिक न सकी, विशेषकर पश्चिम में, और अब केवल जावा इसका केंद्र रह गया है।
 
बातिक की छपाई तकनीक में जावा ने इस समय उतनी ही दक्षता प्राप्त कर ली है जितनी अन्य देशें ने अन्य छपाई प्रथाओं में। यद्यपि सिद्धांत की दृष्टि से कटाव प्रथा का कुछ अनुकरण कर क्रिया को विस्तृत करने और अलंकारिता में विशेषता लाने का प्रयत्न किया गया है, फिर भी अब तक बातिक छपाई का कार्य प्रतिरोधन प्रथा की सीमा के भीतर ही होता है। रंग को कपड़े पर पहुँचने से रोकने के लिए मोम, राल, और चावल, मैदा या स्टार्च की माड़ी का उपयोग किया जाता है। ये पदार्थ ठंडे होकर जमते और प्रतिरोधो का कार्य करते हैं। इन्हें नाना प्रकार से कपड़े पर लगाया जाता है। हाथ से लगाने में अलंकारिता न्यून श्रेणी की होती है, अत: विभिन्न प्रकार के उपकरणों का विकास किया गया है। इनमें से विशेष उल्लेखनीय एक छोटा ताँबे का लोटा है जिसमें कई पतली टेढ़ी टोंटियाँ (spouts) होती हैं। इससे कपड़े पर मोम द्वारा बहुत बारीकी से चित्रांकन किया जा सकता है। कोई कोई कूँची (brush) से भी काम लेते हैं। कभी कभी कपड़े पर मोम लगाकर सुई की नोक से छिद्र बनाते हुए चित्रित किया जाता है। विभिन्न प्रकार की स्टेंसिलों की सहायता से भी चित्र बनाए जाते हैं। आजकल लकड़ी के ठप्पों में ताँबे की पत्तियाँ (strips) लगाकर उत्पादन बढ़ाने का प्रयास सफल हुआ है। इन उपकरणों को रंगाई क्रिया का प्रारंभिक साधन कहा जा सकता है। परंतु रँगाई चूँकि कई बार में पूरी की जाती है, अत: इनका उपयोग बार बार होती है। कभी-कभी एक बार रँग लेने के बाद उस जगह कूँची से भी मोम भरी जाती है, ताकि वहाँ रंग न पहुँच सके। तब रँगाई की क्रिया भी दुहराई जाती है।
 
प्राचीन काल में रँगाई के लिए केवल वानस्पतिक रंग ही उपलब्ध थे। मोम घुले नहीं, इस विचार से इस छपाई प्रथा में रँगाई ठंडे में की जाती थी। नील की अनेक जातियाँ तथा मंजीठ आदि इसी प्रकार काम में लाए जाते थे। मोम आदि से अलंकारिता के पश्चातृ रंगाई की रीति वही होती है जो साधारण कपड़ा रँगाई में व्यवहृत होती है। लाल की रँगाई में तेल लगाना, रंगस्थापक, उसको स्थायी करना आदि क्रियाएँ यथावत् करके तब मोम से अलंकारिता की जाती थी और उसके बार रँगाई होती थी। स्वतंत्र रूप से या कई वनस्पतियों के मिश्रण से बहुरंगी आभाएँ बनाई जाती थीं। फिर भी ये रंगतें आभा में सीमित थीं। आजकल सांश्लेषिक नील और एलिजरिन का उपयोग अधिक किया जाता है। इनके अतिरिक्त अब अन्य उपयुक्त सांश्लेषिक रंजकों, जैसे आज़ोइक आदि को भी, इस छपाई की रँगाई में काम में लाया जाने लगा है। अधिकांश वानस्पतिक रंग प्रकाश और धुलाई में कच्चे होते है। इस कारण से भी नवीन रंगों को अधिक अपनाया गया है। इनकी रंगाई क्रियाएँ भी अधिक सुविधाजनक होती है।