"छीतस्वामी": अवतरणों में अंतर
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"छीतस्वामि" देखत अपनायौ, विट्ठल कृपा निधान।।
"दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता" (सं.2) में लिखा हुआ है कि एक बार छीतस्वामी अपने यजमान महाराज बीरबल (ज.सं.- 1632, या 1640 वि.) के पास अपनी "बरसौढ़ी" (सालाना चंदा) लेने आगरा गए और उनके यहाँ ठहरे। प्रात: समय सोकर जब वे उठे श्रीवल्लभाचार्य का नामस्मरण किया। बाद में देवगंधार राग में स्वरचित एक पद गाया जिसके बोल हैं - ""श्रीवल्लभ राजकुमार। नहिं मिति नाथ कहाँ लों बरनों, अगनित गुन-गन-सार, "छीतस्वामि" गिरिधर श्री विट्ठल प्रघट कृष्ण औतार।" अत: महाराज बीरबल ने पद सुना और आपकी गायकी ओर संगीतपरक ज्ञान की मधुर अभिव्यक्ति पर मुग्ध हो गए, पर मन में डरे कि "कहूँ याहि देसाधिपति (अकबर) सुन लेवें तौ अपने मन में का कहैगौ।" इधर छीतस्वामी शैया से उठ श्री यमुनास्नान करने चले गए। वहाँ से लैटकर आए। पास के श्री ठाकुर जी (मूर्ति) को जगाया, सेवा की और भोगसामग्री सिद्ध कर प्रभु को समर्पण की। बाद में फिर स्वरचित एक कीर्तन पद गाने लगे। बीरबल को यह सब आपका कृत्य अच्छा न लगा। अत: उन्होंने बड़े ही नम्रभाव से छीतस्वामी से कहा- ""आपने सबेरें औरु या समैं जो पद गाए, उन्हें (यदि) म्लेच्छ देसाधिपति सुनि लेइ और माते पूंछै तो मैं कहा उत्तर देंउगो, सो ऐसै न करौ तौ अच्छौ है।"" यै सुनिकें छीतस्वामी बीरबल से बाले- ""राजा, देसाधिपति म्लेच्छ सुनैगो औरु पूंछैगौ जब की बात या समैं तुम पूंछ रहे हो, सो तुम्हहूँ म्लेच्छ जैसे, ही मोहि दीख रहे हौ, सो बरु आज ते मैं तेरौ मुख नाहीं देखौंगो।"" छीतस्वामी बीरबल से यह कह और अपना सामान बांध तथा सालाना बरखासन छोड़ मथुरा वापिस चले आए फिर गोकुल गोस्वामी जी के पास चले गए। उधर बादशाह अकबर ने किसी प्रकार यह सब- छीतस्वामी का आना और अपना सालना बरखासन छोड़कर चले जाना, सुना। उन्होंने बीरबल को पास बुलाया ओर समझाते हुए कहा- "जो बीरबल, तेरे पिरोहित छीतस्वामी ने तोते कहू झूठी बात तौ कही नहीं, तुमकों वौ बात भूलि गई जब मैं और तू एक "नवाड़ा (नाव- किश्ती) में बैठे जमना की सैर कर रहे है। जब नबाड़ा गोकुल पोंहचौ देखौ गो. विठ्ठलनाथजी "ठकुरानी घाट" पै जमना किनारें बैठे आँख मीचें ध्यान में बैठे हैं। मेरे उनके प्रति आदाब बजा लेने पर उन्होंने मुझे आँख मींचे ही मींचे आशीर्वाद दिया था। उस समय मेरे पास एक "मणि" विशेष थी, जो रोजाना पाँच तोला सोना उगला करती थी। मैंने उसे गुसाईं जी की भेंट कर दी और उन्होंने बिना देखे उस मणि को उसी जमना में डाल दिया; मुझे उनकी यह हरकत अच्छी न लगी और उसे वापिस माँगी। मेरी विशेष जिद पर उन्होंने जमना में हाथ डाल कर वैसी ही हूबहू मुठ्ठी भर मणियाँ निकालकर मेरे सामने रख दीं और कहा "तिहारी जो मणि हाई वाइ पैहाचॉन कें लै लेउ।" उस समय मैं और तुम दोनों उनका यह हैरतअंगेज़ करिश्मा देखकर बुत बन गए और सोचने लगे कि ऐसा काम सिवा "खुदा" के और कोई नहीं कर सकता। सो बीरबल वे बात तू भूल गया? और अपने सच्चे पिरोहित से ऐसा कहा। गुसाई जी साच्छात खुदा हैं, इसमें जरा भी फर्क नहीं। यह काम तुझसे अच्छा नहीं हुआ, जो अपने सच्चे खुदापरस्त पिरोहित को वापिस लौटाल दिया- इत्यादि.....।" उधर छीतस्वामी, गोस्वामी जी को गोकुल में न पाकर उनके दर्शनार्थ गोवर्धन चले गए और वहाँ उनके दर्शन किए।" गेस्वामी जी ने उनके आगरें जाइवे के आइवें के समाचर पूँछे, वहाँ कौ सब हाल छीतस्वामी ते सुनिकें आप बड़े प्रसन्न भए। वा समें आपके पास लाहौर के कछु वैष्णव हूँ बैठे हैं सो उनते आपने कही- "जो तुम्ह पास छीतस्वामी को पठवत हो, सो तुम इनकी भली भाँति सें बिदा करियो। कछु दिन पाछें अपने छीतस्वमी कें एक पत्र दैकें सों बिदा करियो। कछु दिन पाछें अपने छीतस्वमी कों एक पत्र दैकें कह्यौ- जौ तुम्ह या पत्र कां लैकें लाहौर जाउ, वहाँ के वैष्णव तुम्हारी बिदा भलिभाँति सें करेंगे।" यह सुनकर छीतस्वामी ने श्री गुसाई जी से विनती की- "जैराज, मैं आपको सेवक (शिष्य) कहू भीख माँगने के लियें भयौ नाहीं। बीरबल के पास मेरी बरसौढ़ी" (सालाना चंदा) बँधी ही, सो म्हौं तोर के लातो हो। जब का "बहिर्मुख" ने म्लेच्छ कौ सौ आचरन कियो में उठिकें चलौ आयै, अब में इन चरनँन कों छोरि के कें कहूं न जाँउगो। वैष्णव हैं कें वैष्णवनँ के घर घर भीख माँगन डोलों, सो जै, अब मोते यै न होइगी।" श्री गो. विठ्ठलनाथ जी उनकी ये निष्कपट वैष्णवों जैसी सच्चे मन की बात सुनकर अति प्रसन्न हुए
छीतस्वामी कृत कुछ विशेष साहित्य नहीं मिलता। पुष्टि संप्रदाय में नित्य उत्सव विशेष पर गाए जानेवाले उनके हस्तलिखित एवं मुद्रित संग्रहग्रंथ- "नित्यकीर्तन", "वर्षोत्सव" तथा "वसंतधमार" पदविशेष मिलते हैं। कीर्तन रचनाओं में संगीत सौंदर्य, ताल और लय एवं स्वरों का एक रागनिष्ठ मधुर मिश्रण देखा जा सकता है।
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