"धनुर्विद्या": अवतरणों में अंतर
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(ञ) स्वस्तिक स्थिति में दोनों टाँगें सीधी फैली होती हैं और पैर के पंजे बाहर की ओर निकले होते हैं।
बाण चलाते समय धनुष को लगभग खड़ी स्थिति में पकड़ते हैं, जैसा आज भी होता है
तीर यदि टागेंट के केंद्र से नीचे बेघता है, तो लक्ष्यविंदु टार्गेट की ओर और वह यदि केद्र से ऊपर पड़ता है, तो लक्ष्यविंदु धनुर्धारी की ओर खिसकना चाहिए। धनुष के सिरों पर सींग या लकड़ी से अधिक मजबूत और टिकाऊ किसी अन्य पदार्थ को जड़कर, सिरों को दृढ़ बनाया जात हा है। डोरी को मजबूती से चढ़ाने के लिए सिरों पर खाँचा होता है। बाण को छोड़ने से पहले उस प्रत्यंचा पर रखकर साधने के लिए बाण पर भी खाँचा बना रहता है। प्रत्यंचा खींचते समय धनुष की पीठ उत्तल और पेट अवतल होता है। धनुष के मध्यभाग में, जो दृढ़ होता है और मोड़ा नहीं जा सकता, धनुष की मूठ होती है। मूठ के ठीक ऊपर एक ओर अस्थि, सीग या हाथीदाँत की बाणपट्टिका जड़ी होती है। बाण को पीछे की ओर तानने पर पट्टिका पर बाण फिसलता है और बाण को छोड़ने से पहले इसी पर उसका सिरा स्थिर होता है। प्रत्यंचा के दोनों सिरों पर फंदे होते हैं, जिनसे वह दोनों सिरों पर दृढ़ता से आबद्ध होती है। निर्मुक्त धनुष को मोड़कर, फंदे को ऊपर सरकाकर, ऊपरी खाँचे में गिराने की क्रिया को धनुष कसना कहते हैं। धनुष को प्राय: इतनी लंबी डोरी से कसते हैं कि कसने की ऊँचाई, यानी डोरी से मूठ के भीतरी भाग तक की दूरी, धनुर्धर के खुले अँगूठे सहित मुट्ठी के बराबर हो। धनुर्धर के डीलडौल पर निर्भर यह दूरी छह और सात इंच के बीच होती है। जिस समय धनुष का उपयोग नहीं करना होता है उस समय इसकी विपरीत क्रिया करके धनुष को ढीला कर देते हैं और इस प्रकार उपयोग के समय ही धनुष तनाव की स्थिति में रहता है।
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