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== प्रांरभिक इतिहास ==
[[चित्र:BABUR CROSSING RIVER SON Folio from an illustrated manuscript of ‘Babur-Namah’, Mughal, Akbar Period, dated AD 1598, Artist Jagnath.jpg|thumb|BABUR CROSSING RIVER SON Folio from an illustrated manuscript of ‘Babur-Namah’, Mughal, Akbar Period, dated AD 1598, Artist Jagnath]]
प्राचीन चित्रों में बड़े बड़े जहाज तो कुछ अच्छी तरह चित्रित देखे जाते हैं, किंतु नावों के चित्र यदि कहीं हैं भी तो अत्यंत अनगढ़ और असावधानीपूर्वक बने हुए। केवल कहीं कहीं खुदाइयों में प्रस्तरयुगीय अवशेषों के साथ इनके भी भग्नावशेष मिले हैं। पौराणिक जलप्लावन के बाद शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मनु के, बाइबिल के अनुसार नूह के
आदिवासियों ने इधर उधर जाने और अपना सामान ढाने के लिए जब नदी नाले पार करने के आरंभिक प्रयास किए होंगे तब उन्हें लकड़ी या हलके पदार्थों की कुछ मात्रा बाँधकर, या फिर किसी वृक्ष का तना कोलकर तथा उसे पानी में तैराकर, अपने उद्देश्य में सफलता मिली होगी। इन्हीं में हम नाव या जहाज का मूल निहित मान सकते हैं। यह विवादास्पद है कि तना कोलकर बनाई हुई डोंगी पहले अस्तित्व में आई या पानी पर तैरनेवाले सरपत, नरकुल आदि का बेड़ा। शायद छाल की डोंगियाँ और भी बाद में बनी और इसके बाद पशुओं के चमड़े के मशकों में हवा भरकर, उसके ऊपर घास फूस, लकड़ी आदि का पाटन लगाकर, इनसे लोग पानी में पार उतरने लगे। साथ ही साथ चमड़े की पनसुइया भी बनने लगी होंगी। ये कुछ सुधरे हुए स्वरूप थे। कुछ भी हो, यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि बहुत दूर दूर देशों में स्थित, आपस में कभी भी एक दूसरे से संपर्क में न आ सकनेवाले लोगों के मन में अलग अलग, एक जैसे ही विचार उत्पन्न हुए।
आरंभ में ये बेड़े या डोंगियाँ, अपनी गति के लिए पानी के प्रवाह पर ही निर्भर होंगी। किंतु जब किसी ने यह खोज की होगी कि किसी लट्ठे या चप्पू की सहायता से वह इन्हें इच्छानुसार इधर उधर, नदी की धारा के आर पार, या प्रवाह के साथ, अथवा उलटे भी ले जा सकता है, तब उसे अपनी सफलता पर अवश्य ही बड़ा हर्ष और गर्व हुआ होगा। फिर तो नदियों, झीलों और कच्छों में विहार करते करते लोगों ने कभी कभी अच्छे मौसम में तट से दूर समुद्र में भी जाना आरंभ कर दिया होगा। धीरे धीरे प्रयोग से उसकी माँग बढ़ी, त्रुटियों की खोज हुई और सुधार भी सूझे। गति बढ़ाने की आवश्यकता अनुभव हुई। बेड़े के चारों ओर से
चमड़े या बाँस की बनी हुई पनसुइया से शायद लोगों का लकड़ी के ढाँचे पर कोई आवरण चढ़ाकर नाव बनाने का विचार उत्पन्न हुआ। उनके सामने निर्माण की दो विधियाँ आई : (1) पहले बाहरी आवरण बनाकर उसके भीतर कड़ियाँ और ताने लगाकर मजबूत करना
== वर्तमान नावें ==
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भूमध्यसगर की नावों की विशेषता है गोल माथा और यान के बाहर पिच्छल पर लटकी हुई गहरी पतवारी। यूनानी और इतालवी सागरों में बड़ी सुंदर बनावट और अत्यधिक वहनक्षमतावाली असंख्य प्रकार की नावें रहती है, किंतु मिस्त्र के प्राचीन नमूने की नावें अब कहीं नहीं दिखाई पड़तीं। नील नदी में नगर नामक बहुत बड़ी, चम्मच के आकार की, चौड़े पिच्छलवाली, अनगढ़ नावें चलती हैं। ये 60 फुट तक लंबी होती है और 45 टन तक बोझ ले जाती है। आगे चलकर, जहाँ नदीतट बहुत ऊँचे है, बड़े बड़े उथले बजरे चलते हैं, जिन्हें गयासा कहते हैं। इनमें बहुत ऊँचे दो दो मस्तूल होते हैं, ताकि उनपर लगे पाल तट के ऊपर से आनेवाली हवा पकड़ सकें।
यद्यपि सन् 1855 में लैंबोट नामक एक फ्रांसीसी ने प्रबलित कंक्रीट की छोटी नाव भी पेटेंट करा ली थी, तथापि नौका निर्माण के लिए लकड़ी का ही प्रयोग आदि काल से होता आया है
== आधुनिक प्रवृत्ति ==
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19वीं सदी के मध्य में नावों में इंजन लगने लगे। नौकाविहार के लिए भापनौका का खूब प्रचलन हुआ, किंतु नौपरिवहन तथा पत्तनों में इसका प्रयोग बहुत धीरे धीरे बढ़ा। 20वीं शती के आरंभ में भी यहीं प्रवृत्ति रही, किंतु [[प्रथम विश्वयुद्ध]] के बाद, जब वाष्पयंत्र विश्वसनीय समझ लिया गया, इनका प्रयोग सभी क्षेत्रों में बडी तेजी से बढ़ा। इनका मानकीकरण होने से संसार के अधिक सभ्य कहे जानेवाले देशों में चित्रविचित्र और दर्शनीय नावों के स्थानीय नमूने बड़ी तेजी से गायब होने लगे। यूरोपीय तटों में सभी जगह, जहाँ अत्यंत विभिन्नतापूर्ण परिस्थितियाँ थीं, एक ही गति हुई, अर्थात् पालपतवार की जगह भाप ने ले ली। किंतु हिंद महासागर, दक्षिणी प्रशांत महासागर, दक्षिणी अमरीका की नदियों और अफ्रीका की झीलों में अभी इनका व्यापक प्रयोग नहीं हो पाया है।
[[वाणिज्य]] के लिए भापनौका बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। यह कम से कम दो तीन फुट पानी में भी आसानी से चल सकती है। भारत की अधिकांश बड़ी बड़ी नदियों में सूखी ऋतु में भी इतना पानी रहता है। इसलिए [[नौपरिवाहन]] के लिए यहाँ व्यापक क्षेत्र है। नौपरिवहन की उन्नति करके सड़कों और रेलों पर भार कम करने के लिए सरकार भी प्रयत्नशील है। [[गंगा]], [[यमुना]], [[सिंध]], [[नर्मदा]], [[गोदावरी]] आदि बारहमासी नदियों की इस दृष्टि से पड़ताल हो रही है। ब्रह्मपुत्र को फरक्का के निकट गंगा से
[[ग्रेट ब्रिटेन]] में 19वीं शती में नौ-निर्माण-उद्योग में बड़ी उन्नति हुई। मछली उद्योग के विस्तार और प्रतिस्पर्धा के कारण इस उद्योग में बराबर सुधार होते रहे। जैसे जैसे नाप बढ़ती गई, भाप का प्रयोग भी बढ़ता गया। अमरीकी नार्वे निपटे पेंदेवाली, चौड़े सिरेवाली, आधी पाटनवाली, खुली खेनेवाली या पालवाली, एक मस्तूलवाली आदि अनेक प्रकार की होती हैं।
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