"पदविज्ञान": अवतरणों में अंतर
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रूपविज्ञान, भाषाविज्ञान का एक प्रमुख अंग है। इसके अंतर्गत पद के विभिन्न अंशों - मूल प्रकृति (baseform) तथा [[उपसर्ग]], [[प्रत्यय]], [[विभक्ति]] (affixation) - का सम्यक् [[विश्लेषण]] किया जाता है इसलिये कतिपय भारतीय भाषाशास्त्रियों ने पदविज्ञान को "प्रकृति-प्रत्यय-विचार" का नाम भी दिया है।
भाषा के व्याकरण में पदविज्ञान का विशेष महत्त्व है। व्याकरण/भाषाविज्ञानी वाक्यों का वर्णन करता है
== प्रकार ==
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अर्थतत्व तथा संबंधतत्व के पारस्परिक संबंधों के मुख्यत: तीन रूप उपलब्ध होते हैं। एक संयुक्त जहाँ दोनों अभिन्न रूप हो जाते हैं, दूसरा ईषत् संयुक्त या अर्धसंयुक्त; इसमें दोनों को पृथक पृथक पहचाना जा सकता है। तीसरे वियुक्त जहाँ दोनों अलग अलग रहकर अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। संयुक्त रूप के अंतर्गत प्राचीन आर्य, सामी हामी आदि भाषाओं की गणना की गई है। इसमें मूल प्रकृति बदल जाती है। ग्रीक प्रथमा एक. बाउस, सं. गो:, ग्रीक पुं.द्वि. जुगोन, सं., युग्म संस्कृत पुंर्लिग पं.एक. अग्ने:, अरबी क़ित्ल (वैरी), कत्ल (मारा), कातिल (मारनेवाला), कुतिल (वह मारा गया) आदि।
वियुक्त रूप में संबंधतत्व पृथक् अस्तित्व रखता है। आधुनिक आर्य, चीनी आदि भाषाएँ इसी कोटि की हैं। संस्कृत के अव्वय, आधुनिक आर्यभाषाओं के परसंग इसके उदाहरण है। यथा सं. इति एवं, च आदि, हिंदी को, से, का, की, के, में पर
इस सबंधतत्वों के द्वारा भाषा की विभिन्न व्याकरणात्मक धाराओं का निर्धारण होता है। इनसे ही भाषा में लिंग, वचन, कारक, पुरुष, काल, प्रश्न, निषेध आदि की अभिव्यक्ति संभव होती है। भाषाशास्त्रियों के मतानुसार इन सभी व्याकरणात्मक धाराओं का प्रयोग भाषा के उत्तरोत्तर विकास के साथ साथ हुआ।
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