"पद्मावत": अवतरणों में अंतर
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'''पद्मावत''' [[हिन्दी साहित्य]] के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध [[महाकाव्य]] है। इसके रचनाकार [[मलिक मोहम्मद जायसी]] हैं। [[दोहा]] और [[चौपाई]] [[छन्द]] में लिखे गए इस महाकाव्य की भाषा [[अवधी]] है।
पद्मावत यह रचना मलिक मुहम्मद जायसी की है। यह हिंदी की अवधी बोली में है और चौपाई दोहों में लिखी गई है। चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद दोहा आता है
इसकी रचना सन् 947 हिजरी. (सं. 1597) में हुई थी। इसकी कुछ प्रतियों में रचनातिथि 927 हि. मिलती है, किंतु वह असंभव है। अन्य कारणों के अतिरिक्त इस असंभावना का सबसे बड़ा कारण यह है कि मलिक साहब का जन्म ही 900 या 906 हिजरी में हुआ था। ग्रंथ के प्रारंभ में शाहेवक्त के रूप में शेरशाह की प्रशंसा है, यह तथ्य भी 947 हि. को ही रचनातिथि प्रमाणित करता है। 927 हि. में शेरशाह का इतिहास में कोई स्थान नहीं था।
== परिचय ==
जायसी सूफी संत थे और इस रचना में उन्होंने नायक रतनसेन और नायिका [[पद्मिनी]] की [[प्रेमकथा]] को विस्तारपूर्वक कहते हुए प्रेम की साधना का संदेश दिया है। रतनसेन ऐतिहासिक व्यक्ति है, वह [[चित्तौड़]] का राजा है, पदमावती उसकी वह रानी है जिसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन उसे प्राप्त करने के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण करता है
=== कथा ===
[[सिंहल द्वीप]] (श्रीलंका) का राजा गंधर्वसेन था, जिसकी कन्या पदमावती थी, जो पद्मिनी थी। उसने एक सुग्गा पाल रखा था, जिसका नाम हीरामन था। एक दिन पदमावती की अनुपस्थिति में बिल्ली के आक्रमण से बचकर वह सुग्गा भाग निकला और एक बहिलिए के द्वारा फँसा लिया गया। उस बहेलिए से उसे एक ब्राह्मण ने मोल ले लिया, जिसने चित्तौड़ आकर उसे वहाँ के राजा रतनसेन के हाथ बेच दिया। इसी सुग्गे से राजा ने पद्मिनी (पदमावती) के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुना, तो उसे प्राप्त करन के लिये योगी बनकर निकल पड़ा।
अनेक वनों और समुद्रों को पार करके वह सिंहल पहुँचा। उसके साथ में वह सुग्गा भी था। सुग्गे के द्वारा उसने पदमावती के पास अपना प्रेमसंदेश भेजा। पदमावती जब उससे मिलने के लिये एक देवालय में आई, उसको देखकर वह मूर्छित हो गया
रतनसेन पहले से भी विवाहित था
यहाँ, उसकी सभा में राघव नाम का एक पंडित था, जो असत्य भाषण के कारण रतनसेन द्वारा निष्कासित होकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुँचा
चित्तौड़ में पदमावती अत्यंत दु:खी हुई और अपने पति को मुक्त कराने के लिये वह अपने सामंतों गोरा तथा बादल के घर गई। गोरा बादल ने रतनसेन को मुक्त कराने का बीड़ा लिया। उन्होंने सोलह सौ डोलियाँ सजाईं जिनके भीतर राजपूत सैनिकों को रखा और दिल्ली की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने यह कहलाया कि पद्मावती अपनी चेरियों के साथ सुल्तान की सेवा में आई है
जिस समय वह दिल्ली में बंदी था, कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पदमावती के पास एक दूत भेजकर उससे प्रेमप्रस्ताव किया था। रतनसेन से मिलने पर जब पदमावती ने उसे यह घटना सुनाई, वह चित्तौड़ से निकल पड़ा और कुंभलनेर जा पहुँचा। वहाँ उसने देवपाल को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। उस युद्ध में वह देवपाल की सेल से बुरी तरह आहत हुआ और यद्यपि वह उसको मारकर चित्तौड़ लौटा किंतु देवपाल की सेल के घाव से घर पहुँचते ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। पदमावती और नागमती ने उसके शव के साथ चितारोहण किया। अलाउद्दीन भी रतनसेन का पीछा करता हुआ चित्तौड़ पहुँचा, किंतु उसे पदमावती न मिलकर उसकी चिता की राख ही मिली।
इस कथा में जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का ऐसा सुंदर सम्मिश्रण किया है कि हिंदी साहित्य में दूसरी कथा इन गुणों में "पदमावत" की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी है। प्राय: यह विवाद रहा है कि इसमें कवि ने किसी रूपक को भी निभाने का यत्न किया है। रचना के कुछ संस्करणों में एक छंद भी आता है, जिसमें संपूर्ण कथा को एक आध्यात्मिक रूपक बताया गया है और कहा गया है कि चित्तौड़ मानव का शरीर है, राजा उसका मन है, सिंहल उसका हृदय है, पदमिनी उसकी बुद्धि है, सुग्गा उसका गुरु है, नागमती उसका लौकिक जीवन है, राघव शैतान है और अलाउद्दीन माया है; इस प्रकार कथा का अर्थ समझना चाहिए। किंतु यह छंद रचना की कुछ ही प्रतियों में मिलता है
== सन्दर्भ ग्रन्थ ==
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