"पादप प्रजनन": अवतरणों में अंतर

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पादप प्रजनन का वैज्ञानिक विकास यूरोप में 18वीं शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम यह कार्य बेलजियम के वानमॉन, इंग्लैंड के नाइट और अमरीका के कूपर द्वारा शु डिग्री किया गया था। 1843 ई. में गेहूँ तथा कुछ अन्य पौधों के सुधार का काम शुरु हुआ। विभिन्न देशों से अच्छे प्रकार के बीज या पौधे मँगाकर उगाए जाते थे। फिर उनमें कुछ का चुनाव कर उनको बड़ी मात्रा में उपजाया जाता था। इस विधि से कुछ नए प्रकार के पौधे भी प्राप्त हुए। तब तक गर्भाधान की क्रिया का अन्वेषण नहीं हुआ था। 1830 ई. में परागनलिका (pollen tube) का बीजांड (ovule) तक पहुँचना देखा गया। 1886 ई. में गर्भाधान क्रिया का अन्वेषण स्ट्रॉसवर्गर द्वारा किया गया और 19वीं शताब्दी के अंत तक गार्टनर ने जर्मनी के 700 पौधों का गर्भाधान कराकर, लगभग 250 नए पौधों को उगाया।
 
कृत्रिम रीति से [[परागण]] कराकर नए पौधे प्राप्त करने की क्रिया का पादप प्रजनन कहते हैं। इस प्रक्रिया के कुछ नियम बने हुए हैं, जिनसे यह कार्य संपन्न हो सकता है। दो जातियों या गणों में, जो एक दूसरे से कई गुणों में भिन्न होते हैं, कृत्रिम परागण या गर्भाधान कराकर देख जाता है। प्रथम पीढ़ी (generation) में ये पौधे उन दोनों पौधों के गुण दिखाते हैं जिनसे वे प्राप्त किए जाते हैं, और दूसरी पीढ़ी में दबे हुए गुण भी प्रत्यक्ष हो जाते हैं। दो अनुरूप गुणों से प्राप्त पौधों को हाइब्रिड कहते हैं। ऐसा देखा गया है कि ये हाइब्रिड पितृ पौधों से उत्तम होते हैं। इस कार्यविधि को हेट्रोसिस (Hetrosis) कहते हैं। इस शब्द का निर्माण शल ने सन् 1914 में किया था। इस विधि द्वारा हम दो पितृगुणों को एक में ले आते हैं। अत: किन्हीं भी अच्छे गुणोवाले पौधों का चुनाव करके अच्छे गुण एक ही पौधे में प्राप्त किए जा सकते हैं।
 
संसार में जितनी महान् क्रांतियाँ हुई, उनमें प्राय: लोग एक जगह से दूसरी जगह गए हैं और भोजन एवं वस्त्र की कमी ने उनको तरह-तरह के अन्वेषण करने को विवश किया है। इस अवस्था में पादप प्रजनन की विधियों ने मनुष्य की आर्थिक दशा सुधारने में सर्वदा योगदान किया है। अमरीका और यूरोप में इन विधियों को काफी महत्व दिया गया है।