"प्राकृत": अवतरणों में अंतर

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भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम '''प्राकृत''' है, और उन भाषाओं में जो ग्रंथ रचे गए उन सबको समुच्चय रूप से [[प्राकृत साहित्य]] कहा जाता है। विकास की दृष्टि से भाषावैज्ञानिकों ने [[भारत]] में आर्यभाषा के तीन स्तर नियत किए हैं - प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन। प्राचीन स्तर की भाषाएँ [[वैदिक संस्कृत]] और [[संस्कृत]] हैं, जिनके विकास का काल अनुमानत: ई. पू. 2000 से ई. पू. 600 तक माना जाता है। मध्ययुगीन भाषाएँ हैं - [[मागधी]], [[अर्धमागधी]], [[शौरसेनी]], [[पैशाची भाषा]], [[महाराष्ट्री]] और [[अपभ्रंश]]। इनका विकासकाल ई. पूर्व 600 ई. 1000 तक पाया जाता है। इसके पश्चात्, [[हिंदी]], [[गुजराती]], [[मराठी]], [[बँगला]], आदि उत्तर भारत की आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास प्रारंभ हुआ जो आज तक चला आ रहा है।
 
== मध्ययुगीन भाषाओं '''(प्राकृत)''' की मुख्य विशेषताएँ ==
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'''(3)''' क से लेकर म् तक के स्पर्शवर्ण पाए जाते हैं। किंतु अनुनासिकों में संकोच तथा व्यत्यय होता है।
 
'''(4)''' तीनों ऊष्मा वर्णो के स्थान पर केवल एक, और विशेषत: स् ही अवशिष्ट पाया जाता है।
 
'''(5)''' संयुक्त व्यंजनों का प्राय अभाव है। दोनों संयोगी व्यंजनों का या तो समीकरण कर लिया जाता है अथवा स्वरागम द्वारा दोनों को विभक्त कर दिया जाता है, या उनमें से एक का लोप कर दिया जाता है।
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== प्राकृत की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्त ==
अब प्रश्न यह होता है कि मध्ययुग की भाषाओं में संस्कृत की अपेक्षा इतनी अधिक विशेषताएँ कब, क्यों, कैसे और कहाँ पर उत्पन्न हो गईं। प्राकृत के वररुचि आदि वैयाकरणों ने प्राकृत भाषाओं की प्रकृति संस्कृत को मानकर उससे प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति की है। "प्रकृति: संस्कृतं, तत्रभवं तत आगतं वा प्राकृतम्"। किंतु संस्कृत भाषा का वर्तमान स्वरूप स्वयं ई. पूर्व छठी शती के लगभग विकसित हुआ है, और उसे स्थिर रूप तो पाणिनि द्वारा ई. पू. तीसरी चौथी शती में दिया गया है। संस्कृत के उक्त प्रकार के अनेक लक्षणों से विभिन्न भाषाओं का छठी शती ई. पू. में ही उत्पन्न होना कैसे संभव हो सकता है ? इसके अतिरिक्त प्राकृत में ऐसे भी अनेक शब्द पाए जाते हैं जिनका संस्कृत में अभाव है, किंतु वैदिक भाषा में वे विद्यमान हैं। प्राकृत की अनेक प्रवृत्तियों को लिए हुए बहुत से शब्द वेदों में पाए जाते हैं, जो संस्कृत व्याकरण के अनुकूल नहीं हैं। इस समस्या पर अनेक पाश्चात्य विद्वानों का एक मत यह है कि आर्यभाषा जब भारतवर्ष में प्रचलित हुई, अनार्य लोग उसका आर्यो के सदृश शुद्ध शुद्ध उच्चारण और प्रयोग नहीं कर पाए; अतएव उन्होंने अपने निजी उच्चारण एवं भाषाशैली के अनुसार उसे बोलना प्रारंभ किया, और उनके संपर्क से इस का प्रभाव आर्यो पर भी पड़ा। इसी के फलस्वरूप प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियों का विकास हुआ। इस मत के समर्थन में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वैदिक काल से ही जो ट् ठ् आदि मूर्धन्य ध्वनियों का प्रवेश आर्यभाषा में हुआ, वह बहुलता से उस काल की अनार्य भाषाओं का ही प्रभाव था। किंतु प्राचीन अनार्य भाषाओं का विश्लेषण कर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि प्राकृत की उक्त विशेषताओं का बीज उन अनार्य भाषाओं में विद्यमान थे। इसीलिये इस मत के संबंध में विवाद है।
 
दूसरा मत यह है कि वेदों की भाषा बोलनेवाले जातियों में ही स्वयं ध्वन्यात्मक भेद थे, जिनके कुछ प्रमाण वेदों में ही उपस्थित है अनुमानत: वेदों की भाषा उस काल की रूढ़िबद्ध वेदभाषा के क्रमविक से अनुमानत: कई हजार वर्षो में संस्कृत भाषा का विकास हुआ, पर विशेषत: सुशिक्षित पुरोहित वर्ग की अपनी भाषा थी, तथा जिसमें धार्मिक कार्यों मे ही उपयोग किया जाता था। उतने ही काल प्राचीनतम वैदिक भाषा की समकालीन जनसाधारण की लोकभाषा से संस्कृत के साथ साथ ही प्राकृत का भी विकास हुआ, जिसमें प्रदेशभेदानुसार नाना भेद थे। इस संबंध में यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि भारत में आर्यों का प्रवेश एक ही काल में एवं एक धारा में हुआ नहीं कहा जा सकता। यदि आगे पीछे आनेवाली आर्य जातियों के भाषाभेद से प्राकृत भाषाओं के उद्गम और विकास व संबंध हो तो आश्चर्य नहीं। इस संबंध में हॉर्नले और ग्रियर्सन के वह मत भी उल्लेखनीय है जिसके अनुसार भारतीय आर्यभाषाएँ दो वर्गो में विभाजित पाई जाती हैं हृ एक बाह्य और दूसरा आभ्यंतर उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व की भाषाओं के उक्त प्रकार दो वर्ग उत्पन्न हो गए। इसे संक्षेप में समझने के लिये महाराष्ट्र प्रदेश के नामों जैसे गोखले, खेर, परांजपे, पाध्ये, मुंजे गोडवोले, तांबे, तथा लंका में प्रचलित नामों जैसे गुणतिलके सेना नायके, बंदरनायक आदि में जो अकारांत कर्ता एक वचन के रूप से ए प्रत्यय दिखाई देता है, वही पूर्व की मागधी प्राकृत मे अपने नियमित स्थिरता को प्राप्त हुआ पाया जाता है। आदि आर्यभाषा मे वैदिक र् के स्थान पर ल् का उच्चारण भी माना गया है, जैसे कुलउ उ श्रोत्र। उसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप वैदिक वृक् के स्थान पर जर्मन भाषासमूह में वुल्फ़ एवं ग्रीक में पृथु का प्लुतुस् पाया जाता है। यह र् के स्थान पर ल् का उच्चाराण ध्वनि मागधी से सुरक्षित हैं, किंतु उसी काल की बोलियों में उनके समीकृत रूप जैसे ओत्त अत्त, सत्त, भी पाए जाते हैं। बोगाजकुई के भिन्न मितन्नि (मैत्रा यणी ?) आर्यशाखा के जो लगभग 200 ई. पू. के लेख मिले हैं उनमें इंद्र और नासत्य देवताओं के नाम इंदर और नासातीय रूप से अंकित हैं। उनमें स्वरभक्ति द्वारा संयुक्त वर्णो के संयुक्त किए जाने की प्रवृत्ति विद्यमान है। वरुण देवता का नाम "उरुवन" रूप में उल्लिखित है जिसमें स्वर के अग्रागम तथा वर्णव्यत्यय की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। ये प्रवृत्तियाँ प्राकृत के सामान्य लक्षण हैं। पालि में प्रयुक्त इध संस्कृत तथा वैदिक के इह से पूर्वकालीन परंपरा का है इसमें भी किसी को कोई संदेह नहीं है। आदि आर्यभाषा में ए तथा ओ के ह्रस्व रूप थे; ऐ और औ का अभाव था; किंतु अइ, अउ जैसे मिश्र स्वर प्रचलित थे; अनुनासिक स्पर्शों का संकोच था; तीन ऊष्मों में केवल एकमात्र स् ही था। ये ध्वन्यात्मक विशेषताएँ प्रधानत: शौरसेनी प्राकृत में सुरक्षित पाई जाती हैं, इत्यादि। इन लक्षणों के सद्भाव का समाधान समुचित रूप से यही मानकर किया जा सकता है कि प्राकृत भाषाओं में उनका आगमन प्राचीनतम आर्य जातियों की बोलियों से अविच्छिन्न परंपरा द्वारा चला आया है। यथार्थत: संस्कृत हो अथवा वैदिक को ही प्राकृत की प्रकृति मान लेने से उक्त लक्षणों का कोई समाधान नहीं होता।
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=== प्राचीन स्तर की प्राकृत ===
बुद्ध और महावीर ने जिस भाषा या भाषाओं में अपने उपदेश दिए वे प्राकृत के प्राचीन स्तर के उत्कृष्ट रूप रहे होंगे। उनके उपदेशों की भाषा को क्रमश: मागधी एवं अर्धमागधी कहा गया है। किंतु वर्तमान में पालि कही जानेवाली भाषा के ग्रंथों में हमे मागधी का वह स्वरूप नहीं मिलता जैसा पश्चात्कालीन वैयाकरणों ने बतलाया है। तथापि भाषा का जो स्वरूप बौद्ध [[त्रिपिटक]] ग्रंथों में पाया जाता है वह प्राकृत के प्राचीन स्तर का ही स्वीकार किया जाता है। इस स्तर प्राकृत का सर्वत: प्रामाणिक स्वरूप अशोक की शिलाओं और स्तंभो पर उत्कीर्ण धर्मलिपियों में उपलबध होता है। इन शिलाओं की संख्या लगभग 30 है। सौभाग्य से इनमें केवल ई. पूर्व तृतीय शती की प्राकृत भाषा का स्वरूप सुरक्षित है, किंतु उन प्रशस्तियों में तत्कालीन भाषा के प्रादेशिक भेद भी हमें प्राप्त होते हैं। पश्चिमोत्तर प्रदेश में शहबाजगढ़ी और मानसेहरा नामक स्थानों की शिलाओं पर जो 14 प्रशस्तियाँ खुदी हुई पाई गई हैं उनमें स्पर्श वर्णों के अतिरिक्त र् और ल् एवं श् ष् स् ये तीनों ऊष्म प्राय: अपने अपने स्थानों पर सुरक्षित हैं। रकार युक्त संयुक्त वर्ण भी दिखाई देते हैं। किंतु ज्ञ और णय के स्थान पर ञ्ञ का प्रयोग पाया जाता है। इस प्रकार यह भाषा वैयाकरणों की पैशाची प्राकृत का पूर्वरूप कही जा सकती है। ये ही 14 प्रशस्तियाँ उस भाषा को शौरसेनी का प्राचीन रूप प्रकट करती हैं। उत्तर प्रदेशवर्ती कालसी, जौगड़ नछौली नामक स्थानों पर भी वे ही 14 प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इनमें हमें र् के स्थान पर ल् तथा अकारांत संज्ञाओं के कर्ता कारक एक वचन की ए विभक्ति प्राप्त होती है। तथापि तीनों ऊष्मों के स्थान पर श् नहीं किंतु स् का अस्तित्व मिलता है। इस प्रकार यहाँ मागधी प्राकृत के तीन लक्षण नहीं। अतएव इसे मागधी की अपेक्षा अर्धमागधी प्राकृत के तीन लक्षणों में से दो प्रचुर रूप से प्राप्त होते हैं, किंतु सकार संबंधी तीसरा लक्षण नहीं। अतएव इसे मागधी की अपेक्षा अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। अशोक की प्रशस्तियाँ उनके भाषात्मक महत्व के अतिरिक्त साहित्यिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। उनमें प्राचीन भारत (ई. पू. 3री शती) के एक ऐसे सम्राट के नीति, धर्म एवं सदाचार संबंधी विचार और उपदेश निहित हैं जिसने न केवल इस विशाल देश के समस्त भागों पर राजनीतिक अधिकार ही प्राप्त किया था, तथा देश के बाहर भी अलेक्जेंड्रिया तक भिन्न भिन्न देशों से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया था और यहाँ अपने धर्मदूत भी भेजे थे। इस सबके बाहर भी अलेक्जेंड्रिया तक भिन्न भिन्न देशों से सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया था, और वहाँ अपने धर्मदूत भी भेजे थे। इन सब दृष्टियों से यह साहित्य अपने ढंग का अद्वितीय है।
 
प्राचीन स्तर की प्राकृत का दूसरा उदाहरण उड़ीसा की उदयगिरि खंडगिरि की हाथीगुंफा नामक गुहा में उत्कीर्ण कलिंगसम्राट् खारवेल का लेख है जो अनेक बातों में अशोक के शिलालेखों से समता रखता है। किंतु इसकी अपनी विशेषता यह है कि इसमें उस सम्राट् के वर्षो की विजयों तथा लोककल्याण संबंधी कार्यो का विवरण लिखा गया है। इसका काल अनुमानत: ई. पू. द्वितीय शती है। उसकी भाषा अशोक की गिरनार की प्रशस्तियों से मेल खाती है, अतएव वह प्राचीन शौरसेनी कही जा सकती है। इस प्राकृत का ई. पू. तीसरी शताब्दी मं पश्चिम भारत और उसके सौ, डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् जैन षट्खंडागम आदि ग्रंथों एवं कुंदकुंदाचार्य आदि की दक्षिण प्रदेश की रचनाओं में पाया जाना उसकी तत्कालीन दिग्विजय तथा सार्वभौमिकता का प्रमाण है। उस काल में इतना प्रचार और किसी भाषा का नहीं पाया जाता।
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=== द्वितीय स्तर की प्राकृत ===
इसके पश्चात् प्राकृत भाषाओं के जो भेद प्रभेद हुए उनका विशद वर्णन भरत [[नाट्यशास्त्र]] (अध्याय 17) में प्राप्त होता है। उन्होंने वाणी का पाठ दो प्रकार का माना है- संस्कृत और प्राकृत; तथा कहा है कि प्राकृत में तीन प्रकार के शब्द प्रचलित हैं- समान (तत्सम), विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी। नाटक में भाषाप्रयोग का विवरण उन्होंने इस प्रकार दिया है - उत्तम पात्र संस्कृत बोलें, किंतु यदि वे दरिद्र हो जाएँ तो प्राकृत बोलें; श्रमण, तपस्वी भिक्षु, स्त्री, बालक, आदि अशुद्ध है। तथापि इतना स्पष्ट है कि उन्होंने क, त, द, य और व के लोप, ख, घ आदि महाप्राण वर्णो के स्थान पर ह का आदेश; ट का ड, अनादि त् का अस्पष्ट द कार उच्चारण; ष्ट, ष्ण आदि का खकार, इन परिवर्तनों का उल्लेख किया है। इससे प्रमाणित है कि वे द्वितीय स्तर की प्राकृत का ही वर्णन कर रहे हैं। 32वें अध्याय में उन्होंने ध्रुवा नामक गीतिकाव्य का विस्तार से उदाहरणों सहित वर्णन किया है और स्पष्ट कहा है कि ध्रुवा में शौरसेनी का ही प्रयोग किया जाना चाहिए (भाषा तु शोरसेनी ध्रुवायाँ संप्रयोजयेत्)। यह बात उनके उदाहरणों से भी प्रमाणित है। अत: पश्चात्कालीन धारणा निर्मूल है कि नाटकों के गेय भाग में महाराष्ट्री का प्रयोग किया जाय। भरत के मत से नाटक में शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया जाय या इच्छानुसार किसी भी देशभाषा का। ऐसी देशभाषाएँ सात हैं - मागधी, आवंती, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका, और दक्षिणात्या। अंत:पुर निवासियों के लिये मागधी; चेट, राजपुत्र और सेठों के लिये अर्घमागधी; विदूषकादि के लिये प्राच्या; नायिका एवं सखियों के लिये अर्धमागघी; विदूषकादि के लिये प्राच्या; नायिका एवं सखियों के लिये शौरसेनी से अविरुद्ध आवंती; योद्धा, नागरिक तथा जुआरियों के लिये दाक्षिणात्या; तथा उदीच्य, खस, शबर, शक आदि जातियों के लिये वाह्लीका का प्रयोग करें। इनके अतिरिक्त भरत ने शबर, आभीर, चांडाल आदि की हीन भाषाओं को विभाशा कहा है। इस प्रकार भरत के नाटक के पात्रों में जो प्राकृत भावनाओं का बँटवारा किया है उसका संस्कृत के नाटकों में आंशिक रूप से ही पालन किया जाता है।
 
संस्कृत नाटकों में सबसे अधिक प्राकृत का उपयोग और वैचित्र्य [[शूद्रक]] कृत [[मृच्छकटिकम्]] में मिलता है। पिशल, कीथ विद्वानों आदि के मतानुसार तो मृच्छकटिक की रचना का उद्देश्य ही प्राकृत सम्बन्धी नाट्यशास्त्र के नियमों को उदाहृत करना प्रतीत होता है। इस नाटक के टीकाकार पृथ्वीधर के मतानुसार नाटक में चार प्रकार की प्राकृत का ही प्रयोग किया जाता है - शौरसेनी, अवंतिका, प्राच्य और मागधी। प्रस्तुत नाटक में सूत्रधार, नटी, नायिका वसंतसेना, चारुदत्त की ब्राह्मणी स्त्री एवं श्रेष्ठी तथा इनके परिचारक परिचारिकाऐं ऐसे 11 पात्र शौरसेनी बोलते हैं। आवंती भाषा बोलनेवाले केवल दो अप्रधान पात्र हैं। प्राच्य भाषा केवल विदूषक बोलता है; तब कुंज, चेटक, भिक्षु और चारुदत्त का पुत्र कुल छह पात्र मागधी बोलते हैं इनके अतिरिक्त शकारि, चांडाली तथा ढक्की के भी बोलनेवाले एक एक दो दो पात्र हैं। किंतु यदि इन सब पात्रों की भाषा का विश्लेषण किया जाए तो वे सब केवल दो भागों में बाँटी जा सकती हैं - शौरसेनी और मागघी। टीकाकार ने स्वयं कहा है कि आवंती में केवल रकार व लोकोक्तियों का बाहुल्य होता है और प्राच्या में स्वार्थिक ककार का। अन्य बातों में वे शौरसेनी ही हैं। शकारी, चांडाली तथा ढक्की सब मागधी की ही शैलियाँ है। इस प्रकार नामचार का प्राकृत बाहुल्य होने पर भी वस्तुत: [[मृच्छकटिक]] में अश्वघोष के नाटकों की अपेक्षा कोई अधिक भाषाभेद नहीं दिखाई देता। प्राकृत का स्वरूप कालगति से विशेष विकसित हो गया है और उसमें कुछ ऐसे लक्षण आ गए हैं जिनके कारण इस प्राकृत को प्राचीन स्तर की अपेक्षा द्वितीय स्तर की कहा जाता है। इसी स्तर की प्राकृत तथा उसके देशभेदों का विवरण हमें उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों में मिलता है और उन्हीं का विपुल साहित्य भी विद्यमान है।
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द्वितीय स्तर की प्राकृत का सर्वप्राचीन व्याकरण चंडकृत [[प्राकृत लक्षण]] या [[आर्ष प्राकृत व्याकरण]] है। यह अति संक्षिप्त है और केवल 99 सूत्रों में प्राकृत की विधियों का निरूपण कर दिया गया है। इस स्तर की विशेषता बतलाने वाले सूत्र ध्यान देने योग्य हैं। सूत्र 76 के अनुसार वर्गो के प्रथम क् च् ट् त् आदि वर्णों के स्थान पर तृतीय का आदेश होता है, जैसे, पिशाची -- बिसाजी, जटा -- डटा, कृतं -- कदं, प्रतिसिद्ध -- पदिसिद्धं। सूत्र 77 के अनुसार ख् घ् च् और भ के स्थान में हकार का आदेश जैसे- मुखं -- मुहं, मेघ: -- नेहो, माधव: -- माहवो, वृषभ: -- वसहो। सूत्र 97 के अनुसार क् तथा वर्गों के तृतीय वर्णो (ग् ज् आदि) का स्वर के परे लोप होता है, जैसे - कोकिल: -- कोहली, भौगिक: -- भोइओ, राजा -- राया, नदी -- नई। सूत्र 98 के अनुसार लुप्त व्यंजन के परे अ होने पर य होता है, जैसे - काकाऊ कायाऊ, नानाऊ नाया, राजाऊ राया। अंतिम 99वें सूत्र में कहा गया है कि प्राकृत की शेष व्यवस्था शिष्ट प्रयोगों से जाननी चाहिए। इनसे आगे के चार सूत्रों में अपभ्रंश का लक्षण, संयुक्त वर्ण से लकार का लोप न होना, पेशाची का र् और ण् के स्थान पर ल् और न का आदेश, मागधिका का र् और स् के स्थान पर ल् और श् का आदेश, तथा शौरसेनी का त् के स्थान में विकल्प से द् का आदेश बतलाया गया है। भाषाशास्त्रियों का मत है कि द्वितीय स्तर के आदि मे क आदि अबोध वर्णों के स्थान पर ग् आदि सघोष वर्णो का उच्चारण होने लगा। फिर इनकी अल्पतर ध्वनि शेष रही और फिर सर्वथा लोप हो गया, तथा महाप्राण ध्वनियों के स्थान पर केवल एक शुद्ध ऊष्म ध्वनि ह् अवशिष्ट रह गई। ये प्रवृत्तियाँ तथा उक्त आर्ष व्याकरण में निर्दिष्ट य श्रुति विकल्प से समस्त जैन प्राकृत है। किंतु पश्चात्कालीन 16वीं, 17वीं शती के प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृतों के निरूपण में जो भ्रांतियाँ उत्पन्न की हैं, उनके आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य की प्राकृतों को उक्त विकल्पों के सद्भाव के कारण जैन शौरसेनी तथा जैन महाराष्ट्री नामों द्वारा पृथक् निर्दिष्ट करना आवश्यक समझा, यह ऐतिहासिक दृष्टि से वास्तविक नहीं है।
 
इस आर्ष प्राकृत व्याकरण के पश्चात् [[प्राकृतप्रकाश]] नामक व्याकरण लिखा गया, जिसमें आगे दो बार वृद्धि की गई। आदि के नौ परिच्छेद वररुचि कृत हैं। इनमे आदर्श प्राकृत की क्रमश: स्वरविधि, व्यंजनविधि, संयुक्तवर्ण विधि, संकीर्ण, संज्ञारूप, सर्वनाम विधि, क्रियारूप, धात्वादेश एवं अव्ययों का निरूपण किया गया है। अंत में कहा गया है कि प्राकृत का शेष स्वरूप संस्कृत के समझना चाहिए। इस व्याकरण में द्वितीय स्तर के प्राकृत का स्वरूप पूर्णरूप से निर्धारित हुआ पाया जाता है। इसके अनुसार मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् प् य और द का प्राय: लोप होता है, एवं ख् घ् थ् ध् और भ् के स्थान पर ह् आदेश। प्राकृतप्रकाश के इस प्राचीन विभाग पर कात्यायन, भामह, वसंतराज, सदानंद और रामपाणिवादकृत टीकाएँ पाई जाती हैं। आगे के 10वें और 12वें परिच्छेदों में क्रमश: पैशाची का 14 सूत्रों में तथा मागधी का 17 सूत्रों में निरूपण किया गया है। इन दोनों भाषाओं की प्रकृति शौरसेनी कही गई है। किंतु इससे पूर्व कहीं भी शौरेसेनी का नाम नहीं आया। अतएव अनुमानत: इसके कर्ताओं की दृष्टि में सामान्य प्राकृत का निरूपण उस काल की सुप्रचलित शोरसेनी का ही है। इन दो परिच्छेदों पर केवल भामह की टीका है, और विद्वानों का अनुमान है कि ये दोनों परिच्छेद उन्हीं के जोड़े हुए हैं। इनमें पैशाची का विशेषता शब्द के मध्य में तृतीय चतुर्थ वर्णो के स्थान पर प्रथम तथा द्वितीय का आदेश, ण के स्थान पर न्, ज्ञ्, न्य के स्थान पर ञ्ञ तथा त्वा के स्थान पर तूण बतलाई गई है, और मागधी की ष्, स्, के स्थान पर क्ष ज् के स्थान पर य्, क्ष के स्थान पर एक अहं के स्थान पर हके, हगे व अहके, तथा अकारांत कर्ता कारक एकवचन के अंत में ए कही गई हैं। प्राकृत प्रकाश का अंतिम 12 वाँ परिच्छेद बहुत पीछे जोड़ा गया प्रतीत होता है। इसपर भामह व अन्य किसी की टीका नहीं है। इस परिच्छेद की अवस्था बड़ी विलक्षण है। इसमें शौरसेनी के लक्षण बतलाए गए हैं, जिसकी आदि में ही प्रकृति संस्कृत कही गई हैं। किंतु अंतिम 32वें सूत्र में पुन: कहा गया हैहृ शेषं महाराष्ट्री वत्। परंतु महाराष्ट्री शब्द इससे पूर्व ग्रंथ भर में अथवा अन्य कहीं व्याकरण में आया ही नहीं है। जान पड़ता है यह परिच्छेद उस समय जोड़ा गया है जब यह धारणा सुदृढ़ हो गई कि प्राकृत काव्य की भाषा महाराष्ट्री ही होनी चाहिए। अतएव जहाँ प्राकृत का निर्देश है, वहाँ महाराष्ट्री का ही तात्पर्य ग्रहण किया जाय। यहाँ जो शौरसेनी का स्वरूप बतलाया गया है, उसी से स्पष्ट हो जाता है कि जो स्वरूप यहाँ सामान्य प्राकृत का बतलाया गया है, वह शौरसेनी का ही कालानुसार विकसित रूप है। उदाहरणार्थ शौरसेनी में मध्यवर्ती त् और थ् के स्थान क्रमश: द् और ध् होते हैं, वहाँ प्राकृत में द् का लोप और थ का ह होता है। "भ्" धातु का शौरसेनी में "भो" ही रहता है, कि किंतु प्राकृत में वहाँ "हो" आदेश कहा गया है। शौरसेनी में नपुंसक बहुवचन के रूप में वहाँ णि होता है, जैसे जलाणि, वाणणि, वहाँ प्राकृत के केवल इ रहता है, जैसे जलाइं, वणाइं शौरसेनी में दोला, दंड तथा दसण का आदि द् प्रकृति रूप रहता है, जबकि प्राकृत में वह ड् हो जाता है, जैसे डोला, डंड व डसण इत्यादि।
 
प्राकृतप्रकाश के पश्चात् प्राकृत तथा उसकी प्रादेशिक भाषाओं का सर्वांगपूर्ण निरूपण करनेवाला, प्राकृत व्याकरण हेमचंद्र द्वारा 12वीं शती ई. में लिखा गया। इसके चार परिच्छेद हैं, जिनमें से लगभग साढ़े तीन परिच्छेदों में प्राकृत का सुव्यवस्थित विवरण दिया गया है और शेष लगभग 200 सूत्रों में क्रमश: शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं के विशेष लक्षण बतलाए हैं। इन भाषाओं में से प्रथम तीन का स्वरूप तो अधिक विस्तृत रूप मे वही है जो ऊपर बतलाया जा चुका है। चूलिका पैशाची के लक्षण यहाँ चार सूत्रों में ये बतलाए गए हैं कि उसमें तीसरे और चौथे वर्णो के स्थान पर प्रथम और द्वितीय का आदेश होता है, र् का ल् विकल्प से होता है, कुछ आचार्यो के मत से आदिवर्ण की ध्वनि में परिवर्तन नहीं होता, शेष बातें पैशाची के समान जाननी चाहिए।