"प्रातिशाख्य": अवतरणों में अंतर

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== प्रातिशाख्यों की परंपरा में ह्रास ==
यद्यपि प्रातिशाख्यों के आलोचनात्मक अध्ययन और प्रकाशन में इधर विद्वानों ने, विशेषत: पाश्चात्य विद्वानों ने, विशेष रुचि दिखलाई है, शताब्दियों से इन ग्रंथों के अध्ययनाध्यापन की परंपरा में ्ह्रास और शैथिल्य बराबर बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। यही कारण है कि प्रातिशाख्यों में और उनकी व्यख्याओं में भी अनेक पाठ अशुद्ध या अस्पष्ट हैं। यही कारण है कि ऋग्वेद संहिता के सायण भाष्य जैसे महान्‌ ग्रंथ में कदाचित्‌ एक बार भी ऋग्वेदप्रातिशाख्य का उल्लेख नहीं है, और कई स्थानों पर अनेक पदों की संधि बलात्‌ पाणिनिसूत्र से सिद्ध करने का यत्न किया गया है।
 
आवश्यकता है कि प्रातिशाख्यों के प्रकाश में वैदिक संहिताओं का अध्ययन किया जाए।