"भवभूति": अवतरणों में अंतर

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'''भवभूति''', [[संस्कृत]] के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ [[नाटक]]कार थे। उनके [[नाटक]], [[कालिदास]] के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति ने अपने संबंध में [[महावीरचरित्]]‌ की प्रस्तावना में लिखा है। ये [[विदर्भ]] देश के 'पद्मपुर' नामक स्थान के निवासी श्री भट्टगोपाल के पुत्र थे। इनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने अपना उल्लेख 'भट्टश्रीकंठ पछलांछनी भवभूतिर्नाम' से किया है। इनके गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' था। [[मालतीमाधाव]] की पुरातन प्रति में प्राप्त 'भट्ट श्री कुमारिल शिष्येण विरचित मिंद प्रकरणम्‌' तथा 'भट्ट श्री कुमारिल प्रसादात्प्राप्त वाग्वैभवस्य उम्बेकाचार्यस्येयं कृति' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीकंठ के गुरु [[कुमारिल भट्ट|कुमारिल]] थे जिनका 'ज्ञाननिधि' भी नाम था और भवभूति ही मीमांसक उम्बेकाचार्य थे जिनका उल्लेख [[भारतीय दर्शन|दर्शन ग्रंथों]] में प्राप्त होता है और इन्होंने कुमारिल के [[श्लोकवार्तिक]] की टीका भी की थी। संस्कृत साहित्य में महान्‌ दार्शनिक और नाटककार होने के नाते ये अद्वितीय हैं। पांडित्य और विदग्धता का यह अनुपम योग संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है।
 
[[शंकरदिग्विजय]] से ज्ञात होता है कि उम्बेक, मंडन सुरेश्वर, एक ही व्यक्ति के नाम थे। भवभूति का एक नाम 'उम्बेक' प्राप्त होता है अत: नाटककार भवभूति, मीमांसक उम्बेक, और अद्वैतमत में दीक्षित सुरेश्वराचार्य एक ही हैं, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है।
 
[[राजतरंगिणी]] के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये [[कान्यकुब्ज]] के नरेश [[यशोवर्मन]] के सभापंडित थे, जिन्हें [[ललितादित्य]] ने पराजित किया था। 'गउडवहो' के निर्माता [[वाक्यपतिराज]] भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है।
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भाषा और शैली के प्रयोग में इनकी विचक्षणता अद्वितीय है। सरल और क्लिष्ट, समाससंकुल गाढ़बंध और समासरहित दोनों प्रकार की शैलियों का इन्होंने उत्कृष्ट प्रयोग किया है-कहीं मधुर पदावली और कहीं विकट गाढ़बंध। साथ ही उनकी भाषा अवसर ओर व्यक्ति के अनुरूप होती है। उनकी शैली में वाच्यार्थ की प्रधानता है किंतु व्यर्थ का वागाडंबर नहीं। प्रकृति के घोर और प्रचंड रूप की ओर कवि का ध्यान अधिक है। साथ ही अर्थ के अनुरूप ध्वनि उत्पन्न करने में कवि का नैपुण्य पदे-पदे व्यंजित होता है।
 
यह एक नाटक ही कवि की प्रतिमा और पांडित्य की अभिव्यक्ति के लिए अलं है। इन्होंने कहा है - 'एको रस: करुण एव' (करूणरस ही एकमात्र रस है)। इस नाटक में अनेक रसों का रूप धारण करके करुण रस सहृदयों के हृदय पर अपना प्रभाव छोड़ जाता है। अपने नाटक में प्रेम के जिस उच्च और आदर्श रूप की कवि ने प्रतिष्ठा की है वह अवस्था के साथ ढलता नहीं, और भी पूर्ण तथा उदात्त रूप प्राप्त करता है। संभवत: यही कारण है कि कवि ने नारी के बाह्य सौंदर्य के वर्णन की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया है और उसके अंतःसौंदर्य को ही उद्घाटित किया है। प्रेम की इस पवित्रता के साथ विश्वास की महिमा, हृदय की महत्ता, भाषा क गंभीरता और भावों के तरंगायित क्रीड़ाविलास में यह नाटक साहित्य में 'एको रस: करुण एव' के समान एक ही है।
 
पांडित्य और प्रतिभा के घनी भवभूति के नाटकों में शास्त्रों का व्यापक ज्ञान, भाषा की प्रौढ़ता, भाव की गरिमा और निरीक्षण की सूक्ष्मता के कारण सरसता के स्थान पर गांभीर्य और उदात्तता विशेष प्राप्त होती है। संभवत: इन कारणों से उस समय कवि की रचनाएँ अधिक लोकप्रिय न हो सकीं और उनके नाटकों का उस समय किसी राजसभा में अभिनय न हो सका। [[उज्जयिनी]] में महाकालयात्रा के अवसर पर एकत्र पुरवासियों के समक्ष की उनके नाटकों का अभिनय हुआ और तदनंतर वे यशोवर्मा के राज्य में समादृत हुए। मालतीमाधव की प्रस्तावना में उनकी गर्वोक्ति 'ये नाम केचिदिह न: प्रथयन्त्यवज्ञाम्‌' (जो कुछ लोग मेरी अवज्ञा कर रहे हैं...) संभवत: उन्हीं दुरालोचकों के प्रति है जिनसे ये निरादृत होते रहे।